शनिवार, जून 16, 2012

झुलसे हुए जज्बात ( कविता )

इधर 
जेठ की दोपहरी में 
लू 
झुलसा रही है तन को 
उधर मुल्क में 
आदमी की संकीर्णता से 
फैली आग में 
झुलस रहे हैं जज्बात ।

बारिशों का मौसम आते ही 
बंद हो जाएगी 
लू चलनी 
खुशगवार हो जाएगा मौसम 
राहत मिल जाएगी तन को 
लेकिन 
झुलसे हुए जज्बातों पर 
नहीं लग पाएगी कोई मरहम 
दिलों में पड़ी दरारें 
भर न पाएंगी 
किसी भी तरह ।

****************

10 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी लगाई गयी है!

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

बहुत बढ़िया....
तन के घाव भर जाते हैं मन के नहीं.....

सादर

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

लेकिन
झुलसे हुए जज्बातों पर
नहीं लग पाएगी कोई मरहम

काश जज़्बातों के लिए भी कोई बरखा का मौसम होता .... सुंदर अभिव्यक्ति

amrendra "amar" ने कहा…

waah bahut umda prastuti.man moh liya

Aruna Kapoor ने कहा…

...झुलसे हुए जज्बात...ला इलाज!

Anju (Anu) Chaudhary ने कहा…

क्या पता बरसात की पहली फुहार.....मन की दरार को भर दे ???

preet arora ने कहा…

बहुत सुंदर विचार.आपकी लेखनी में बहुत ऊर्जा है.बधाई

हिन्दी हाइगा ने कहा…

सुंदर अभिव्यक्ति !!

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

झुलसे हुए जज्बातों पर
नहीं लग पाएगी कोई मरहम
दिलों में पड़ी दरारें
भर न पाएंगी
किसी भी तरह .


बहुत सुन्दर हृदयस्पर्शी भावाभिव्यक्ति....

लक्ष्मी नारायण लहरे "साहिल " ने कहा…

वाह ,बहुत सुन्दर ...कोई तो है ,जिसके एक झलक से चैन -सुकून मिलता है
कोई तो है ,जिसके आने की आहट का अहसास होता है

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