बुधवार, दिसंबर 04, 2019

थोड़ा ज़हर तो चाहिए ही ग़म भुलाने के लिए

आख़िर वजह तो है, मय पीने-पिलाने के लिए 
थोड़ा ज़हर तो चाहिए ही, ग़म भुलाने के लिए। 

वक़्त ने मिट्टी में मिला दिया देखते-देखते
उम्र लगी थी हमें, जो आशियां बनाने के लिए। 

ख़ुद को बचाना गर बग़ावत है तो बग़ावत सही 
वो कर रहा है कोशिशें, मुझे मिटाने के लिए। 

बिना शोर मचाए भी हल हो जाते हैं मसले मगर 
सुनने वाला भी तो चाहिए, बात सुनाने के लिए। 

अक्सर जुबां पर आ जाती है दिल की बात 
बड़ी हिम्मत चाहिए, इसे दिल में छुपाने के लिए। 

एक तरफ़ा नहीं, दो तरफ़ा कोशिशें चाहिए हैं 
विर्क’ नफ़रत की ये दीवार गिराने के लिए।

दिलबागसिंह विर्क 
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5 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (05-12-2019) को    "पत्थर रहा तराश"  (चर्चा अंक-3541)    पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।  
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ 
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Sweta sinha ने कहा…

जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार ६ दिसंबर २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

Rohitas Ghorela ने कहा…

नफरत दोनों तरफ से कम होगी तभी इसका सर्वनाश होगा वरना तो ये वो घास है जो ईंटों पर भी उग जाती है।
सुंदर रचना।

पधारें 👉👉 मेरा शुरुआती इतिहास

मन की वीणा ने कहा…

ख़ुद को बचाना गर बग़ावत है तो बग़ावत सही
वो कर रहा है कोशिशें, मुझे मिटाने के लिए।
बहुत शानदार/उम्दा प्रस्तुति।

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

वाह लाजवाब।

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