बुधवार, नवंबर 27, 2013

मुकद्दर है सफर करना

                 
        न चाहा बेवफा की याद में यूँ आँख तर करना
        करे मजबूर दिल इतना कि पड़ता है मगर करना ।

        मुहब्बत चीज कैसी है, न जीने दे, न मरने दे

        सकूँ छीने, करे बेबस, इसे कहते असर करना ।

        पुरानी बात छोड़ो, कुछ नया चाहे सदा दुनिया

        रहे ताउम्र सबको याद, कुछ ऐसा नजर करना

        यही सच है, यहाँ घर पत्थरों के, लोग भी पत्थर

        हमारा फर्ज है, हालात कुछ तो बेहतर करना ।

        किनारे की तमन्ना कश्तियों को किसलिए होगी

        इधर से वे उधर जाती , मुकद्दर है सफर करना

        बड़े गहरे दबे हैं ' विर्क ', झूठी जिन्दगी के सच

        तुझे मालूम हो जाएँ अगर, सबको खबर करना ।

                                   *****

2 टिप्‍पणियां:

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

बहुत खुबसूरत ग़ज़ल !
नई पोस्ट तुम

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत लाजवाब और उम्दा ग़ज़ल।
--
मित्रवर!
प्रतिदिन एक गज़ल प्रकाशित करते रहिए।
ताकि हमको पूर पुस्तक को पढ़ने का आनन्द मिल सके।

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