न दुआ, न सलाम, ये कैसा वक़्त है
शिकवों से भरा महबूब का ख़त है ।
यह ज़िन्दगी तो जीने लायक़ नहीं
ज़िन्दा हैं लोग, ख़ुदा की रहमत है।
गुनाहों की मुख़ालफ़त गुनाह नहीं
क्यों मुख़ालफ़त के लिए मुख़ालफ़त है ?
चुप हैं खोखली तहज़ीब के कारण
वरना कब कोई किसी से सहमत है।
लफ़्ज़ बेमा’नी हो जाते हैं जहाँ
यह ग़मे-इश्क़ तो वो लज़्ज़त है।
तुम्हें होंगे ज़माने भर के काम मगर
यहाँ तो ‘विर्क’ फ़ुर्सत ही फ़ुर्सत है।
दिलबागसिंह विर्क
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6 टिप्पणियां:
वाह
आज सलिल वर्मा जी ले कर आयें हैं ब्लॉग बुलेटिन की २१५० वीं पोस्ट ... तो पढ़ना न भूलें ...
शुक्रिया आपका जो हमसे मिले - 2150 वीं ब्लॉग-बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
बहुत सुन्दर ....
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (24-08-2018) को "सम्बन्धों के तार" (चर्चा अंक-3073) (चर्चा अंक-3059) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
चुप हैं खोखली तहज़ीब के कारण...वाह मौजूदा वक्त की बात...बहुत खूब कही आपने दिलबाग जी
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