बुधवार, अक्तूबर 10, 2018

ऊँची इमारतों के बीच, मैं अपना घर ढूँढ़ता हूँ

जिसने चाहा था कभी मुझे, अब वो नज़र ढूँढ़ता हूँ
हर महफ़िल में अपना रूठा हुआ हमसफ़र ढूँढ़ता हूँ।  

यूँ तो हर मोड़ पर मिले हैं उससे भी हसीं लोग 
मगर उसके ही जैसा शख़्स मोतबर ढूँढ़ता हूँ। 

तमाज़ते-नफ़रत से झुलस रहे हैं मेरे दिलो-जां 
इससे बचने के लिए, चाहतों का शजर ढूँढ़ता हूँ। 

झूठे दिखावों के इस दौर में खो गया है कहीं 
ऊँची इमारतों के बीच, मैं अपना घर ढूँढ़ता हूँ। 

यहाँ तो लोग मुँह फेर लेते हैं हाल पूछने पर 
हँस-हँस कर गले मिलते थे जहाँ, वो शहर ढूँढ़ता हूँ। 

सुना है ‘विर्क’ अब इंसां, इंसां नहीं रहे, फिर भी 
ज़माने के सदफ़ में, इंसानीयत का गुहर ढूँढ़ता हूँ। 

दिलबागसिंह विर्क 
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5 टिप्‍पणियां:

Anuradha chauhan ने कहा…

बहुत सुंदर 👌👌

मन की वीणा ने कहा…

अति उत्तम आशावादी खोजी दृष्टि।
अप्रतिम।

विकास नैनवाल 'अंजान' ने कहा…

बहुत खूब।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (12-10-2018) को "सियासत के भिखारी" (चर्चा अंक-3122) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Rohitas Ghorela ने कहा…

बेहतरीन गजल
हद पार इश्क 

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