बुधवार, जनवरी 30, 2019

दर्द ने फिर दस्तक दी है, दिल के दरवाजे पर

सदा आज़माते रहो, अपनी दुआओं का असर 
ख़ुदा की रहमत से, शायद कभी बदले मुक़द्दर। 

लोगों के पत्थर पूजने का सबब समझ आया 
जब से मेरा ख़ुदा हो गया है, वो एक पत्थर। 

साक़ी से कहना, वो अपना मैकदा खुला रखे 
दर्द ने फिर दस्तक दी है, दिल के दरवाजे पर। 

बेचैनियों, बेकरारियों का मौसम है यहाँ 
चैनो-सकूँ की मिलती नहीं, कहीं कोई ख़बर।

उम्र भर का रोग ले बैठोगे, एक पल की ख़ता से 
हसीं लुटेरों की बस्ती में, थाम के रखो दिल-जिगर। 

मुहब्बत के चमन में,चहके न ख़ुशियों की बुलबुल 
कौन सैयाद आ बैठा है, लगी है किसकी नज़र ? 

ख़ुद को मिटाने का जज़्बा भी होना ज़रूरी है 
आसां नहीं होता ‘विर्क’ इस चाहत का सफ़र।

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दिलबागसिंह विर्क  

4 टिप्‍पणियां:

अनीता सैनी ने कहा…

बेहतरीन सेर 👌
सादर

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (01-02-2019) को "ब्लाॅग लिखने से बढ़िया कुछ नहीं..." (चर्चा अंक-3234)) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

yashoda Agrawal ने कहा…

आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" कल शाम सोमवार 07 अक्टूबर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

मन की वीणा ने कहा…

बहुत सुंदर प्रस्तुति/बेहतरीन रचना।

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