टूटता ही नहीं ग़मों
का सिलसिला
बढ़ता ही जाए, ख़ुशियों
से फ़ासिला।
मुक़द्दर ने दिया है
ये तोहफ़ा मुझे
कभी आँख रोई,
कभी दिल जला।
न दौलत चाही थी,
न शौहरत मैंने
एक सकूं चाहा था,
वो भी न मिला।
कुछ भी न हुआ
उम्मीदों के मुताबिक़
आख़िर कब तक साथ देता
हौसला।
हमारी दुआएँ हर बार
ज़ाया गई
या ख़ुदा ! क्या ख़ूब
रहा तेरा फ़ैसला।
देखना है ‘विर्क’ अंजाम क्या होगा
मेरे भीतर उठ रहा है
एक ज़लज़ला।
8 टिप्पणियां:
वाह !बेहतरीन सृजन
सादर
बहुत सुंदर प्रस्तुति
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (10-05-2019) को "कुछ सीख लेना चाहिए" (चर्चा अंक-3331) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत ही लाजवाब गजल...
वाह!!!
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन राष्ट्रगौरव महाराणा प्रताप को सादर नमन और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
आवश्यक सूचना :
सभी गणमान्य पाठकों एवं रचनाकारों को सूचित करते हुए हमें अपार हर्ष का अनुभव हो रहा है कि अक्षय गौरव ई -पत्रिका जनवरी -मार्च अंक का प्रकाशन हो चुका है। कृपया पत्रिका को डाउनलोड करने हेतु नीचे दिए गए लिंक पर जायें और अधिक से अधिक पाठकों तक पहुँचाने हेतु लिंक शेयर करें ! सादर https://www.akshayagaurav.in/2019/05/january-march-2019.html
बहुत बढ़िया ग़ज़ल।
बहुत सुन्दर
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