बुधवार, अगस्त 21, 2019

मेरे दिल में सुलगते सवालों को हवा न दे

हर सफ़र में कामयाब होने की दुआ न दे 
अंगारों से खेल जाऊँ, इतना हौसला न दे।

या तो दुश्मन बनके दुश्मनी निभा या फिर
दोस्त बना है तो दोस्ती निभा, यूँ दग़ा न दे। 

कोहराम मचा देंगे, हो जाने दे दफ़न इन्हें 
मेरे दिल में सुलगते सवालों को हवा न दे। 

हक़ीक़त सदा रखनी है आँखों के सामने 
कुछ ज़ख़्म हरे रखने हैं, इनकी दवा न दे। 

चिराग़ाँ जलाते रहना बस फ़र्ज़ है हमारा 
वो बात और है कि इन्हें जलने ख़ुदा न दे। 

आशियाने से जुड़ने की कोशिशें करता रहूँगा  
वक़्त की आँधी ‘विर्क’ जब तक मुझे उड़ा न दे। 

दिलबागसिंह विर्क 
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3 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (23-08-2019) को "संवाद के बिना लघुकथा सम्भव है क्या" (चर्चा अंक- 3436) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Anita ने कहा…

चिराग़ाँ जलाते रहना बस फ़र्ज़ है हमारा
वो बात और है कि इन्हें जलने ख़ुदा न दे।

बहुत खूब..

Prem Sharan ने कहा…

बहुत ही सुन्दर जुगलबंदी से आपने इन शब्दों को पिरोया है धन्यवाद

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