न कभी ख़ामोश रहना, ज़ुल्मो-सितम सहकर।
अक्सर कमजोरी बन जाती है सकूं की ख़्वाहिश
ज़िंदगी का मज़ा लूटो, बहाव के उल्ट बहकर।
महबूब को बुरा कहने की हिम्मत नहीं होती
मैं ख़ुद अच्छा होना नहीं चाहता, झूठ कहकर।
अपनी यादों को तुम बुला लेना अपने पास
मैं ख़ुद को सोचना चाहता हूँ तन्हा रहकर।
मुहब्बत इबादत है ‘विर्क’, बस इतना कहना है
वक़्त ज़ाया नहीं करना चाहता कुछ और कहकर।
दिलबागसिंह विर्क
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दिलबागसिंह विर्क
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5 टिप्पणियां:
बहुत उम्दा ग़ज़ल
ऐसा कहा जाता है कि खामोशी कमजोरी की निशानी होती है। लेकिन आज के समय में कई मामलों में ज्यादा बोलना भी खतरे से खाली नहीं होता।
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 21 नवम्बर 2019 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ज़िंदगी का मज़ा लूटो, बहाव के उल्ट बहकर।
बहुत खूब! लाजवाब/उम्दा।
वाह बेहतरीन
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