उनको भी पता है, मुझको भी ख़बर है
मुहब्बत क्या है, बस एक दर्दे-जिगर है।
ये नज़र मिली थी उनसे मुद्दतों पहले
आज तक उस नशे का मुझ पर असर है।
दिल का चैनो-सकूं लूटकर ले गया जो
उसको हर जगह ढूँढ़ती मेरी नज़र है।
वो मन्दिर है या मस्जिद, सोचा नहीं कभी
सबमें है ख़ुदा, ये सोचकर झुकाया सर है।
क्यों बेचैन हो, किसलिए इतना परेशां
तुम लूटो मज़ा, ये ज़िंदगी एक सफ़र है।
धड़के तो सही ‘विर्क’, ये मचले तो सही
दिल है तो दिल बने, क्यों बनता पत्थर है।
दिलबागसिंह विर्क
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7 टिप्पणियां:
वाह
बहुत सुंदर ग़ज़ल।
नयी पोस्ट: सिर्फ तुम।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (29-03-2019) को दोहे "पनप रहा षडयन्त्र" (चर्चा अंक-3289) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २९ मार्च २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन अब अंतरिक्ष तक सर्जिकल स्ट्राइक करने में सक्षम... ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
बहुत ही सुन्दर...लाजवाब गजल...
वाह!!!
बेहद खूबसूरत रचना
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