कुछ कोशिशें नाकाफ़ी
थी, कुछ लकीरों का असर
था
चलना, थकना, हारना, बस यही मेरा मुक़द्दर था।
न तो ख़ुशियाँ बटोर
सका, न ही ठुकरा पाया इसे
मेरा बसेरा कभी सराय,
कभी मकां, कभी घर था।
ग़ैर तो ग़ैर थे आख़िर
मौक़े मुताबिक़ बदल गए
वे अपने ही थे,
मारा जिन्होंने पहला पत्थर
था।
लोग तो दुश्मन
बनेंगे ही, झूठ को झूठ कहने पर
गिला क्यों करें,
जब ख़ुद चुना दुश्वार सफ़र था।
मुझे पागल साबित
करके वो बच गए इल्ज़ामों से
आख़िरकार ‘विर्क’ वही हुआ जिसका मुझे डर था।
दिलबागसिंह विर्क
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4 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (21-06-2019) को "योग-साधना का करो, दिन-प्रतिदिन अभ्यास" (चर्चा अंक- 3373) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह बहुत उम्दा /बेहतरीन प्रस्तुति।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जमीनी काम से ही समस्या का समाधान : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
बेहतरीन सृजन सर 👌
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