बुधवार, जुलाई 17, 2019

ये इश्क़ भी है कैसी उलझन

ख़ुशियाँ उड़ें, जले यादों की आग में तन-मन 
समझ न आए, ये इश्क़ भी है कैसी उलझन 

न आने की बात वो ख़ुद कहकर गया है मुझसे 
फिर भी छोड़े न दिल मेरा, उम्मीद का दामन 

समझ न आए क्यों होता है बार-बार ऐसा 
तेरा जिक्र होते ही बढ़ जाए दिल की धड़कन

गम की मेजबानी करते-करते थक गया हूँ 
क्या करूँ, मेरा मुकद्दर ही है मेरा दुश्मन 

सितमगर ने सितम करना छोड़ा ही नहीं 
मैं खामोश रहा, कभी मजबूरन, कभी आदतन 

जो रुसवा करे ‘विर्क’ उसी को चाहता है दिल 
ये प्यार है, वफ़ा है, या है बस मेरा पागलपन 

दिलबागसिंह विर्क 
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4 टिप्‍पणियां:

yashoda Agrawal ने कहा…

आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 18 जुलाई 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (19-07-2019) को "....दूषित परिवेश" (चर्चा अंक- 3401) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

अनीता सैनी ने कहा…

बहुत ही सुन्दर सृजन सर
सादर

Onkar ने कहा…

बहुत बढ़िया

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