संभाल लेता ख़ुद को,
गर होता सिर्फ़ तेरा ग़म
ज़माना देता रहा मुझे, हर रोज़ एक नया ज़ख़्म।
जब भी आदी हुए
हालातों के मुताबिक़ जीने के
हमें तड़पाने-जलाने
के लिए, बदल गया मौसम।
लाइलाज मर्ज़ साबित
हुआ है दिल का टूटना
न असर किया दुआओं ने,
न काम आई मरहम।
बीती ज़िंदगी का हर
लम्हा भुलाना ही अच्छा
क्या करेंगे सोचकर,
किसने किए कितने सितम।
ख़ुशफ़हमियों में जीना
हमारी आदत है वरना
झूठा है जब आदमी, फिर
कैसे सच्ची होगी क़सम।
सब सहारे छोड़ जाते
हैं आदमी को तन्हा
कभी-कभी तो ‘विर्क’ साथ छोड़ती लगे क़लम।
3 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (27-09-2019) को "महानायक यह भारत देश" (चर्चा अंक- 3471) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये। --हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
क़लम ही एक ऐसा वरदान है जो हर स्थिति में साथ निभाती है!
बहुत उम्दा/बेहतरीन सृजन।
एक टिप्पणी भेजें