मैं क़ाबिल न था या मेरा प्यार क़ाबिल न था
तुझे पाना क्यों मेरी क़िस्मत में शामिल न था।
इश्क़ के दरिया में, हमें तो बस मझधार मिले
थक-हार गए तलाश में, दूर-दूर तक साहिल न था।
हैरान हुआ हूँ हर बार अपना मुक़द्दर देखकर
ग़फ़लतें होती ही रही, यूँ तो मैं ग़ाफ़िल न था।
मेरे अरमानों, मेरे जज़्बातों की क़द्र न की कभी
गिला क्या करना, शायद उसके पास दिल न था।
ये बात और है कि वो कर गया क़त्ल वफ़ा का
कैसे यकीं न करता, वो हमदम था, क़ातिल न था।
वो तो यूँ ही डर गया ‘विर्क’ दुश्वारियाँ देखकर
जितना समझा, वफ़ा निभाना उतना मुश्किल न था।
दिलबागसिंह विर्क
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4 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (25-10-2019) को "धनतेरस का उपहार" (चर्चा अंक- 3499) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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दीपावली से जुड़े पंच पर्वों की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुंदर ग़ज़ल आदरणीय। जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ।
वाह! शानदार ग़ज़ल।
ये बात और है कि वो कर गया क़त्ल वफ़ा का
कैसे यकीं न करता, वो हमदम था, क़ातिल न था। #बहुतखूब लिखा दिलबाग जी , बहुत दिनों बाद एक अच्छी ग़ज़ल पढ़ी ...
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