इश्क़ की राहों पर क़िस्मत आज़माने की
बुरा क्या है, गर चाहत है तुझे पाने की।
फ़ासिले कितने हैं दरम्यां, ये न देख
देख कोशिशें हमारी, दूरियाँ मिटाने की।
पास फटकने की हिम्मत न जुटा पाएँ ग़म
आदत जिसे नग़्मे ख़ुशी के गुनगुनाने की।
अपने हुनर को तराशते रहो, भले ही
सबको नहीं मिलती इनायतें ज़माने की।
समझना ही होगा हमें इस सच को
हुआ करती हैं कुछ बातें भूल जाने की।
जाने ‘विर्क’ क्यों आदत बन गई है
हर रोज़ नई आफ़त से टकराने की।
दिलबागसिंह विर्क
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3 टिप्पणियां:
फ़ासिले कितने हैं दरम्यां, ये न देख
देख कोशिशें हमारी, दूरियाँ मिटाने की।
बहुत सुंदर।
सुन्दर
जाने ‘विर्क’ क्यों आदत बन गई है
हर रोज़ नई आफ़त से टकराने की।
यही तो जिंदगी है
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