तुझे तेरी नज़रों से
गिराऊँ क्या ?
बेवफ़ाई का मुद्दा उठाऊँ क्या ?
क्या महसूस कर सकोगे
मेरा दर्द
अपने ग़म की दास्तां
सुनाऊँ क्या ?
मेरे पास है बस वफ़ा
की दौलत
बताओ, दिल चीर के दिखाऊँ क्या ?
घुले-मिले पड़े हैं,
ग़म-ख़ुशी के पल
याद रखूँ किसे और
भुलाऊँ क्या ?
सियासत नहीं,
मुहब्बत की है मैंने
फिर इस ज़माने से
छुपाऊँ क्या ?
यूँ तो ‘विर्क’ निराशा मिली हर बार
अपना मुक़द्दर फिर
आज़माऊँ क्या ?
दिलबागसिंह विर्क
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3 टिप्पणियां:
वाह ! बहुत खूबसूरत गजल
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (07-06-2019) को "हमारा परिवेश" (चर्चा अंक- 3359) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन बच्चों का बचपना गुम न होने दें : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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