बुधवार, जनवरी 01, 2020

आशियाने के तिनके बिखर गए


बहारों के दिन तो दोस्तो कब के गुज़र गए
कच्चे रंग थे, पहली बारिश में ही उतर गए।

कोई तमन्ना नहीं अब नए ज़ख़्म खाने की
उन्हीं ज़ख़्मों की जलन बाक़ी है, जो भर गए।

हमसफ़र था जो, वो आँधियाँ लेकर आया था
संभले न हमसे, आशियाने के तिनके बिखर गए।

आख़िर एक दिन हमें टकराना ही पड़ा उनसे
जब किनारा करके निकले, वे समझे डर गए।

घर से मिली रुसवाई हमें ले आई मैकदे
मैकदे से रुसवा होकर फिर वापस घर गए।

दग़ाबाज को दग़ाबाज कहना छोड़ा ही नहीं
यह ग़लती विर्कहम जाने-अनजाने के गए।

दिलबागसिंह विर्क 
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2 टिप्‍पणियां:

मन की वीणा ने कहा…

कोई तमन्ना नहीं अब नए ज़ख़्म खाने की
उन्हीं ज़ख़्मों की जलन बाक़ी है, जो भर गए।
बेहतरीन/उम्दा प्रस्तुति।

Lokesh Nashine ने कहा…

बहुत शानदार

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