सोमवार, सितंबर 09, 2024

अर्जुन विषाद योग ( भाग - 3 )

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अर्जुन बोला कृष्ण से, उनके चलो समीप। 
देखूँ अंतिम बार मैं, बुझने कितने दीप ।।13।।

माधव मानी बात है, रथ आया है बीच। 
चिंता में अर्जुन पड़ा, सोचे आँखें मीच* ।।14।।

अर्जुन ऐसे है खड़ा, ज्यों सूँघा हो साँप । 
केशव को कहने लगा, हाथ रहे हैं काँप ।।15।।

बाँधव ही हैं सामने, मैं कैसे दूँ मार।
गांडीव गिरे हाथ से, मुझे हार  स्वीकार ।।16 ।।

पुत्र, पितामह, तात पर, कैसे छोडूं बाण। 
भाई-बाँधव मारकर, होगा क्या कल्याण ।। 17 ।।

सोचूँ जब हालात पर, पाप करे भयभीत । 
अपने कुल का नाश कर, नहीं चाहिए जीत ।।18।।

हूँ मैं क्षत्रिय जाति से, रण से करता प्रीत। 
लेकिन सत्ता के लिए, बुरी युद्ध की रीत ।। 19 ।।

सिर्फ राजसुख ही नहीं, मिले अगर यह शोक
करता अस्वीकार हूँ, मैं तो तीनों लोक ।। 20 ।।

* बंद करके 
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डॉ. दिलबागसिंह विर्क 

14 टिप्‍पणियां:

Sweta sinha ने कहा…

बहुत सुंदर, सारगर्भित अर्जुन कृष्ण संवाद।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार १० सितम्बर २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

आभार आदरणीय

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Manish aka Manu Majaal ने कहा…

गजब ! सर अनुवाद की शैली मे मौलिकता तो है ही , यूं भी दोहे अपने आप को स्वतंत्र रूप से व्यक्त करने में सक्षम है! बधाई हो!

पूरी कर ले तो बताइएगा , अपन जुगाड़ लगा कर पब्लिश करने की कोशिश करेंगे!

बहुत ही अच्छा प्रयोग! जारी रखिए!

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

वाह

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

हार्दिक आभार, कार्य पूर्ण है और पुस्तक रूप में प्रकाशित है, पुस्तक प्राप्ति का लिंक पोस्ट के नीचे है

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
डॉ टी एस दराल ने कहा…

गीता पाठ दोहे में एक अद्भुत प्रयोग । 👍👍

आलोक सिन्हा ने कहा…

बहुत सुन्दर

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

हार्दिक आभार आदरणीय

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

हार्दिक आभार आदरणीय

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

हार्दिक आभार आदरणीय

हरीश कुमार ने कहा…

बेहतरीन पंक्तियाँ 🙏

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

हार्दिक आभार आदरणीय

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