यूँ तो हैं यहाँ पर
चेहरे जाने-पहचाने बहुत
मगर अपनों के इस शहर
में हैं बेगाने बहुत।
कुछ हुनर न था हाथों
में, कुछ लापरवाही थी
कुछ लगे, कुछ ज़ाया गए, लगाए थे निशाने बहुत।
अपनों की बेवफ़ाई ने
हिम्मत तोड़ दी मेरी
मैं उठ न पाया फिर,
आए थे लोग उठाने बहुत।
उनके ही दिल में
फ़रेब था, तभी तो उन्होंने
मेरी सीधी-सी बात के
निकाले मा’ने बहुत।
हम भी ख़बर रखते हैं
बदले हुए हालातों की
बनाने को तो उसने
बनाए थे बहाने बहुत।
मुझे हर हाल में
छोटा साबित करना था
हैसियत मापने के लिए
बदले पैमाने बहुत।
सच बोलने की बुराई ‘विर्क’ मुझी में तो नहीं
इस दुनिया में होंगे,
मुझ जैसे दीवाने बहुत।
दिलबागसिंह विर्क
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3 टिप्पणियां:
Lajavab gazal
बेहतरीन सृजन सर
सादर
बहुत सुन्दर गजल दिलबाग जी बधाई
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