बुधवार, अगस्त 07, 2019

मैं को भी हम कहते हैं

जिन ज़ख़्मों को ज़माने में इश्क़ के ज़ख़्म कहते हैं 
कसक के हद से बढ़ने को उसका मरहम कहते हैं। 

यही रीत है नज़रों से खेल खेलने वालों की 
दिल के बदले दर्द देने वाले को सनम कहते हैं। 

पतझड़ को बहार बना देने का दमखम है जिसमें 
उस सदाबहार मौसम को प्यार का मौसम कहते हैं। 

उस मुक़ाम पर हैं, यहाँ जीना पड़े यादों के सहारे 
हम इसे ख़ुशी कहते हैं, लोग इसे ग़म कहते हैं। 

क्या औक़ात है आदमी की ख़ुदा से टकराने की 
जितने भी किए सितम वक़्त ने, उनको कम कहते हैं। 

इश्क़ का मुक़ाम पाकर ‘विर्क’ ये हाल हुआ है मेरा 
वो इस क़द्र शामिल मुझमें कि मैं को भी हम कहते हैं।

दिलबागसिंह विर्क 
***** 

10 टिप्‍पणियां:

Ravindra Singh Yadav ने कहा…

आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में गुरुवार 8 अगस्त 2019 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

विभा रानी श्रीवास्तव ने कहा…

उम्दा ग़ज़ल

अनीता सैनी ने कहा…

वाह !बहुत उम्दा सर
सादर

Sudha Devrani ने कहा…

वाह!!!
बहुत लाजवाब...

Anita ने कहा…

बेहतरीन

अनीता सैनी ने कहा…

आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" शुक्रवार 09 अगस्त 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

Onkar ने कहा…

बहुत सुन्दर

Ritu asooja rishikesh ने कहा…

वाह बेहतरीन प्रस्तुति

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत सुंदर

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

वाह जी वाह ! उम्दा

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