बुधवार, अक्टूबर 12, 2016

मैं इस बात को लेकर शर्मिंदा हूँ

लोग हों-न-हों, मैं इस बात को लेकर शर्मिंदा हूँ 
हैवानियत है जहाँ, मैं उस दौर का वाशिंदा हूँ | 

जमाने को बदल सकूं, ऐसी मेरी हैसियत नहीं 
खुद को बदलून कैसे, अपने उसूलों में बंधा हूँ | 

बस उसका वजूद ही दुश्मन है तीरगी का वरना 
आफताब कब कहे किसी को कि मैं ताबिंदा हूँ | 

खुदा ने तो लिखी थी परवाज मेरी किस्मत में 
वक्त ने काट दिए पर जिसके, मैं वो परिंदा हूँ |

बेबसी के दौर में जीने की तमन्ना तो नहीं मगर 
बुजदिली है ख़ुदकुशी ' विर्क ' बस इसलिए ज़िंदा हूँ | 

दिलबागसिंह विर्क 
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सांझा-संग्रह - 100 क़दम 
संपादक - अंजू चौधरी, मुकेश सिन्हा 

4 टिप्‍पणियां:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

बहुत सुन्दर।

कौशल लाल ने कहा…

बहुत सुन्दर .....

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर ने कहा…

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’आँखों ही आँखों में इशारा हो गया - ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

वाह !

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