बुधवार, दिसंबर 27, 2017

मुकरने वाले मुकर जाते हैं यहाँ ज़ुबान करके

क्या पाया मुहब्बत में ख़ुद को क़ुर्बान करके 
चले गए वो तो दिल के चमन को वीरान करके।

लोगों को मौक़ा मुहैया करवा दोगे हँसने का 
कुछ न मिलेगा तुम्हें अपने ग़म का ब्यान करके।

पागल हो, आँखों के इशारे पर एतबार करते हो 
मुकरने वाले मुकर जाते हैं यहाँ ज़ुबान करके।

यही दस्तूर है ज़माने का, तुम संभलना सीखो 
बड़ी क़ीमत वसूलते हैं लोग एहसान करके।

लोगों की सूरतो-सीरत में फ़र्क़ है बहुत 
लूटते हैं ये, ईमानदारी का बखान करके । 

यूँ किनारा कर लोगे ज़िंदगी से, सोचा न था 
रख दिया तुमने तो ‘विर्क’ हमें हैरान करके।

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, दिसंबर 20, 2017

बुज़ुर्गों-सी सयानफ़ आएगी आते-आते

कुछ सच को हमारी हिमायत ज़रूरी है 
कुछ इस पर ख़ुदा की इनायत ज़रूरी है।

आदमीयत को ज़िंदा रखना ही होगा 
आदमी के लिए ये निहायत ज़रूरी है।
बुज़ुर्गों-सी सयानफ़ आएगी आते-आते
बच्चों के लिए थोड़ी रियायत ज़रूरी है।

न पसारो पाँव अपने चादर से ज्यादा 
ख़ुशहाली के लिए किफ़ायत ज़रूरी है।

भाग-दौड़ भरी ज़िंदगी में सकूं के लिए 
सबको ‘विर्क’ वाक्, मंत्र, आयत ज़रूरी है।

दिलबागसिंह विर्क 
*****

बुधवार, दिसंबर 13, 2017

दिल दिल न रहा, पत्थर हो गया है शायद

तेरी बेरुखी का असर हो गया है शायद 
दिल दिल न रहा, पत्थर हो गया है शायद।

जीतने की सब कोशिशें दम तोड़ती रही 
हारना मेरा मुक़द्दर हो गया है शायद।

वफ़ा, मुहब्बत, एतबार खो गये हैं कहीं 
ईंट-पत्थर का मकां, घर हो गया है शायद

ख़ुशियों के सब किलों को जीतता जा रहा है 
ग़म तो दूसरा सिकंदर हो गया है शायद

आदमी ने ‘विर्क’ छोड़ दी है आदमियत 
इसलिए ख़ुदा का क़हर हो गया है शायद।

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, दिसंबर 06, 2017

प्यार भरा दिल दग़ाबाज़ नहीं होता

न चाहो ताज, सबके सिर पर ताज नहीं होता 
मिले मुहब्बत, इससे बढ़कर एजाज़ नहीं होता।

परहेज़ ही काम करता है इस इश्क़ में यारो 
इस मर्ज़ के मरीज़ का इलाज नहीं होता। 

अश्क बहाते, ग़म उठाते हैं लोग वहाँ के 
वफ़ा निभाना यहाँ का रिवाज नहीं होता।

हिम्मत हो पास तो अभी मुमकिन है सब कुछ 
कल कैसे होगा वो काम, जो आज नहीं होता

चेहरे पे मासूमियत झलकती है ख़ुद-ब-ख़ुद 
सीने में छुपाया जिसने राज़ नहीं होता।

यही ख़ासियत इसकी, इस पर एतबार करना 
प्यार भरा दिल ‘विर्क’ दग़ाबाज़ नहीं होता।

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, नवंबर 29, 2017

जो झूठा होता है, वही बात बनाता है अक्सर

मेरे ख़्वाबों में तेरा चेहरा मुसकराता है अक्सर 
ग़म पागल दिल पर हावी हो जाता है अक्सर।

सच को कब ज़रूरत पड़ी किन्हीं बैसाखियों की 
जो झूठा होता है, वही बात बनाता है अक्सर ।

लाठी वाले जीतते रहे हैं यहाँ पर हर युग में 
इतिहास का हर पन्ना यही क़िस्सा सुनाता है अक्सर।

भले ही दामन भरा हो ख़ुशियों से, मगर ये सच है 
दर्द का लम्हा सबको अपने पास बुलाता है अक्सर।

जो हो चुके पत्थर वे क्या जाने अहमियत जज़्बातों की 
दिल तो दिल है ‘विर्क’, रोता है, तड़पाता है अक्सर।

दिलबागसिंह विर्क
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बुधवार, नवंबर 22, 2017

वो बात-बात पर हँसता है

वो बात-बात पर हँसता है 
लोगों को पागल लगता है।

आज हो रहा ये अजूबा कैसे 
आँधियों में चिराग़ जलता है।

सिकंदर होगा या फिर क़लंदर
जो दिल में आया, करता है।

वक़्त के साँचे में ढलते सब 
क्या वक़्त साँचों में ढलता है ?

सुना तो है मगर देखा नहीं 
पाप का घड़ा भरता है।

उसूलों की बात मत छेड़ो 
यहाँ पर ‘विर्क’ सब चलता है।

 दिलबागसिंह विर्क 
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मंगलवार, नवंबर 14, 2017

कब तक डराएगा, तेरे बिना जीने का डर

मुझे ख़ुदा न समझना, कहा था मैंने मगर 
तूने पागल समझा मुझे, किसके कहने पर।

मुझ पर अब ज़रा-सा यक़ीं नहीं रहा तुझको
क्या इससे बढ़कर होगा क़ियामत का क़हर।

बस ये ही बेताब हैं गले मिलने को वरना 
नदियों का इंतज़ार कब करता है सागर।

बेवफ़ाई आबे-हयात है तो, हो मुबारक तुझे 
मुझे तो मंज़ूर है, पीना वफ़ा का ज़हर।

इसका इलाज तो ढूँढना ही होगा, आख़िर
कब तक डराएगा, तेरे बिना जीने का डर।

तेरी असलियत को जानती है सारी दुनिया 
विर्क’ यूँ ही अच्छा बनने की कोशिश न कर।

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, नवंबर 08, 2017

धड़कनों को धड़कने का ये बहाना हो गया

तेरी चाहत में ख़ुद से बेगाना हो गया 
न जाने क्यों मैं इस क़द्र दीवाना हो गया।

सब कोशिशें नाकाफ़ी रही इसे रोकने की 
शमा जो जलती देखी, दिल परवाना हो गया।

तुझे याद न किया तो इल्ज़ाम आएगा वफ़ा पर 
धड़कनों को धड़कने का ये बहाना हो गया।

मुहब्बत कब रास आई है नफ़रतपसंदों को 
फिर क्या हुआ गर दुश्मन ये ज़माना हो गया।

राहे-इश्क़ में ख़ुशियाँ नहीं मिली तो न सही 
अपना तो ‘विर्क’ ग़म से याराना हो गया। 

दिलबागसिंह विर्क
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बुधवार, नवंबर 01, 2017

ख़ुशी की दौलत इंसानों के पास नहीं

जले का इलाज शमादानों के पास नहीं 
ग़मों का हिसाब दीवानों के पास नहीं।

बेवफ़ाई, बेहयाई ले बैठी है सबको 
ख़ुशी की दौलत इंसानों के पास नहीं।

सुकूं मिला तो मिलेगा अपनों के पास 
न ढूँढ़ो इसे, यह बेगानों के पास नहीं। 

आशिक़ों के काम की चीज़ है, वहीं देखो 
ये दिल होता हुक्मरानों के पास नहीं।

मुल्क बेचकर घर भरते रहते हैं अपना 
शर्मो-हया सियासतदानों के पास नहीं ।

छूट चुके हैं जो तीर, लगेंगे निशाने पर 
कोई इलाज अब कमानों के पास नहीं। 

ज़िंदगी की उलझनों में उलझते चले गए 
इनका हल ‘विर्क’ नादानों के पास नहीं।

दिलबागसिंह विर्क 
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मंगलवार, अक्टूबर 24, 2017

उतारकर सब नग, मुहब्बत पहनो

तेरी याद छुपाकर सीने में 
मज़ा आने लगा है जीने में।

मैकदे की तरफ़ भेजा था जिसने 
बुराई दिखती है अब उसे पीने में।

हवाओं का रुख देखा नहीं था 
क़सूर निकालते हैं सफ़ीने में।

रुत बदली दिल का मिज़ाज देखकर 
आग लगी है सावन के महीने में।

उतारकर सब नग, मुहब्बत पहनो 
देखो कितना दम है इस नगीने में।

जीने लायक़ सब कुछ है यहाँ पर 
क्या ढूँढ़ रहे हो ‘विर्क’ दफ़ीने में।

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, अक्टूबर 18, 2017

जो तेरे साथ बीती, ज़िंदगी वही थी

प्यार भरे दिलों में दीवार उठी थी 
दूर हो गये हम, कैसी हवा चली थी। 

एक मोड़ पर आकर हाथ छूट गया 
भरी दोपहर में एक शाम ढली थी।

महफ़िल में आया जब भी नाम तेरा 
मेरे सीने में एक कसक उठी थी । 

हर बीता दिन गहरे ज़ख़्म दे गया 
दम तोड़ती रही, जो आस बची थी।

दिन तो अब भी कट रहे हैं किसी तरह 
जो तेरे साथ बीती, ज़िंदगी वही थी।

बस यही सोचकर ख़ुश हो लेते हैं हम 
जुदा होकर ‘विर्क’ तुझे ख़ुशी मिली थी।

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दिलबागसिंह विर्क 

बुधवार, अक्टूबर 11, 2017

दिल तो आख़िर दिल है, एक बार तड़पा होगा

उसकी महफ़िल में जब मेरा ज़िक्र हुआ होगा 
उसकी ख़ामोशियों ने कुछ तो कहा होगा।

क़समें वफ़ा की भुलाना आसां तो नहीं होता 
दिल तो आख़िर दिल है, एक बार तड़पा होगा।

जिनकी मतलबपरस्ती ने किया बदनाम इसे 
ख़ुदा मुहब्बत का ज़रूर उनसे ख़फ़ा होगा। 

प्यार करके मैंने क्या पाया, तुम ये पूछते हो 
मेरी रुसवाई का चर्चा तुमने सुना होगा।

दिल को यारो अब किसी का एतबार न रहा 
इससे बढ़कर भी क्या कोई हादसा होगा।

इस दर्द का अहसास तो होगा ‘विर्क’ तुम्हें
उम्मीदों का चमन कभी-न-कभी उजड़ा होगा।

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, अक्टूबर 04, 2017

कभी खींच लिया दोस्तों ने, कभी फिसल गए

ये तो ख़बर नहीं, आज गए या कल गए 
ख़ुशी जब मेहमान थी, गुज़र वो पल गए।

उनसे पूछो तुम वफ़ा के मा’ने क्या हैं 
अरमानों को जिनके हमदम कुचल गए।

शिखर पर पहुँचा न गया हमसे बस इसलिए 
कभी खींच लिया दोस्तों ने, कभी फिसल गए।

हमें हराया हालातों से लड़ने की ज़िद ने 
जीत हुई उनकी, जो बचकर निकल गए।

ये दौर, हैरतअंगेज़ कारनामों का है 
यहाँ खरे लुढ़कते रहे, खोटे चल गए

ज़िंदगी ‘विर्क’ इस तरह गुज़रती रही 
फिर ठोकर खाई, जब लगा संभल गए।

दिलबागसिंह विर्क 
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रविवार, सितंबर 24, 2017

कीमत

( विश्व हिंदी सचिवालय मोरिशस द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कहानी प्रतियोगिता में सांत्वना पुरस्कार प्राप्त कहानी )

" अभी तो मेरे हाथों की मेहँदी भी नहीं उतरी और आप …." - शारदा ने अपने आंसू पोंछते हुए डबडबाई आवाज़ में अपने पति राधेश्याम से पूछा ,लेकिन राधेश्याम ने उसे बात पूरी नहीं करने दी और बीच में ही उसे टोकते हुए बोला – " तुम सारी की सारी औरतें ही एक जैसी होती हो , मैं तुम्हारी मेहँदी को देखता रहूँ या कुछ कमाई करूं ? "
" कमाई तो यहाँ भी हो सकती है |"
" यहाँ क्या खाक कमाई होती है , खेत में फसल तो होती नहीं , कर्ज़ दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है, अगर कुछ दिन और खेती से कमाई की उम्मीद में बैठे रहे तो ये रही – सही जमीन भी बिक जाएगी | "

बुधवार, सितंबर 20, 2017

हिम्मत तो की होती बुलाने की

चुन ली राह ख़ुद को तड़पाने की 
क्यों की ख़ता तूने दिल लगाने की।

ये हसीनों की आदत होती है 
चैन चुराकर नज़रें चुराने की।

जिन्हें घर भरने से फ़ुर्सत नहीं 
वो क्या करेंगे फ़िक्र ज़माने की।

हम न आते तो गिला भी करते 
हिम्मत तो की होती बुलाने की।

चाहा ही नहीं हालात बदलना 
सब कोशिशें हैं, जी बहलाने की।

आदमी को ‘विर्क’ समझा ही नहीं 
चाहत दिल में ख़ुदा को पाने की। 

दिलबागसिंह विर्क 
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मंगलवार, सितंबर 12, 2017

मुहब्बत दिल के लिए आतिश हुई

ये मुझसे कैसी बेहूदा ख़्वाहिश हुई 
मुहब्बत दिल के लिए आतिश हुई।

ढूँढ़ो, कहीं से आशिक़ों को ढूँढो 
ख़ूने-जिगर की अगर फ़रमाइश हुई।

सुबह तक तो मौसम बिल्कुल साफ़ था 
कब बादल घिरे और कब बारिश हुई।

बेवफ़ाई गुनाह नहीं, बस यही सोचकर 
न हमसे किसी अदालत में नालिश हुई।

दुश्मनों के इशारे पर चले दोस्त 
मेरे ख़िलाफ़ ये कैसी साज़िश हुई।

कुंदन बनकर निकला हौसला मेरा 
जब-जब ‘विर्क’ इसकी आज़माइश हुई।

दिलबागसिंह विर्क 
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मंगलवार, सितंबर 05, 2017

बारिशों का दौर

सावन में 
थमता ही नहीं 
बारिशों का दौर 
कभी बादल बरसते हैं 
कभी आँखें 

बादलों के बरसने से 
लहक उठती है प्रकृति 
और आँखों के बरसने से 
मुस्कराने लगते हैं ज़ख्म 
हरियाली ही हरियाली होती है 
प्रकृति में भी
जख्मों में भी 

ये बारिशें 
सिर्फ हरियाली ही नहीं लाती 
उमस भी लाती हैं 
उमस से फिर घिरने लगते हैं बादल 
आसमान पर काले बादल
दिल पर अवसाद के बादल 
फिर शुरू होता है बारिशों का दौर 
बारिशें ही बनती हैं कारण 
अगली बारिशों का 

आँखें हों या बादल
खाली हो होकर भरते हैं 
भर-भर कर खाली होते हैं !

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दिलबागसिंह विर्क 

बुधवार, अगस्त 30, 2017

लावारिस देश

एक तरफ हैं 
वे लोग 
जो जला रहे हैं देश को 
जाति के नाम पर
धर्म के नाम पर 
भाषा के नाम पर 

दूसरी तरफ हैं वे लोग 
जो जला तो नहीं रहे देश को 
मगर वे देख रहे हैं तमाशा 
चुपचाप बैठकर 

तीसरी तरह के लोग भी हैं 
जो न जला रहे हैं देश को
न बचा रहे हैं 
वे बस बहस कर रहे हैं 
ऊंगली उठा रहे हैं 
इस्तीफा मांग रहे हैं 

इस देश पर अपना हक़ 
जताते हैं सब 
मगर दिखता नहीं कोई 
देश को बचाने वाला 
आखिर ये देश किसका है ? 

दिलबागसिंह विर्क 
*****

बुधवार, अगस्त 23, 2017

हाथों में जाम लेकर

जब भी बरसता है आँखों का सावन तेरा नाम लेकर 
मैं अपना ग़म भुलाता हूँ अक्सर, हाथों में जाम लेकर।

क्यों अब तक वापस नहीं आया वो, कोई बताए मुझे 
किस तरफ़ गया था क़ासिद, मुहब्बत का पैग़ाम लेकर।

तू तो सौदागर ठहरा, आ ये सौदा कर ले मुझसे 
वफ़ाएँ मेरे नाम कर दे, मेरी जान का इनाम लेकर।

न जाने क्यों तुझे गवारा न हुआ मेरे साथ चलना 
तुझे ख़ुशियों की सुबह दी थी, ग़म की शाम लेकर। 

ये दौलत, ये शौहरत के मुक़ाम मुबारक हों तुम्हें 
प्यार बिना क्या करूँगा, ऐसे बे’माने मुक़ाम लेकर।

इस बारे में कुछ न पूछो ‘विर्क’, बता न पाऊँगा 
जीना कैसा लगता है, अश्कों-आहों के इनाम लेकर।

दिलबागसिंह विर्क 

मंगलवार, अगस्त 15, 2017

अब मुहब्बत भी है बदनाम

न डरो, न घबराओ, बस करते रहो अपना काम 
फिर मिलने दो, जो मिले, इनाम हो या इल्ज़ाम।

बस्ती-ए-आदम में दम तोड़ रही है आदमीयत 
लगानी ही होगी हमें फ़िरक़ापरस्ती पर लगाम।

ख़ुदा तक पहुँच नहीं और आदमी से नफ़रत है 
बता ऐसे सरफिरों को मिलेगा कौन-सा मुक़ाम।

लुभाती तो हैं रंगीनियाँ मगर सकूं नहीं देती 
बसेरों को लौट आएँ परिंदे, जब ढले शाम।

आदमी की आदतों ने सबमें ज़हर घोला है 
सियासत ही नहीं, अब मुहब्बत भी है बदनाम।

शायद इसका नशा कुछ देर बाद रंग लाएगा 
बस पीते-पिलाते रहना ‘विर्क’ वफ़ा के जाम।

दिलबागसिंह विर्क 

मंगलवार, अगस्त 08, 2017

बातचीत बहाल कर

दिल में कोई ग़लतफ़हमी है तो सवाल कर
तेरी महफ़िल में आया हूँ, कुछ तो ख़्याल कर।

मिल बैठकर सुलझाएगा तो सुलझ जाएँगे मुद्दे
न लगा चुप का ताला, बातचीत बहाल कर।

सोच तो सही, तेरे दर के सिवा कहाँ जाऊँगा
तेरा दीवाना हूँ, न मुझे इस तरह बेहाल कर।

मैं पश्चाताप करूँगा बीते दिनों के लिए
अपनी ग़लतियों का तू भी मलाल कर।

मैं कोशिश करूँगा विर्कतेरा साथ देने की
तोड़ नफ़रत की दीवार, आ ये कमाल कर।

दिलबागसिंह विर्क 
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मंगलवार, अगस्त 01, 2017

लज़्ज़ते-इश्क़ का, कभी बयां नहीं होता

ज़मीं नहीं होती, उनका आसमां नहीं होता
सीने में जिनके छुपा कोई तूफ़ां नहीं होता।
क्यों खोखले शब्दों को सुनना चाहते हो 
लज़्ज़ते-इश्क़ का, कभी बयां नहीं होता। 

दर्द तो सताता ही है उम्र भर, भले ही 
मुहब्बत के ज़ख़्मों का निशां नहीं होता। 

पल-पल मिटाना होता है वुजूद अपना 
दौरे-ग़म को भुलाना आसां नहीं होता। 

अपने मसले अपने तरीक़े से सुलझाओ 
यहाँ सबका मुक़द्दर यकसां नहीं होता।

मंज़िलें उसकी उससे बहुत दूर रहती हैं 
जब तक आदमी मुकम्मल इंसां नहीं होता। 

तारीख़ी बातें किताबों में ही रह जाती हैं 
आम आदमी ‘विर्क’ तारीख़दां नहीं होता।

दिलबागसिंह विर्क 
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मंगलवार, जुलाई 25, 2017

मिले न मिले

इन आँखों को, कोई हसीं नज़ारा मिले न मिले 
जीना तो है ही, जीने का सहारा मिले न मिले |

मौजें ही अब तय करेंगी सफ़ीने का मुक़द्दर 
अब तो चल ही पड़े हैं, किनारा मिले न मिले | 

जो मिला, जैसा मिला, उसी से तुम निभा लो यार 
इस ख़ुदग़र्ज दुनिया में दोस्त प्यारा मिले न मिले | 

दिल की कोयल को गा लेने दो पतझड़ में गीत 
दौरे-दहशत में बहारों का इशारा मिले न मिले | 

मैं वस्ल के दिनों को जीना चाहता हूँ शिद्दत से 
क्या भरोसा ताउम्र साथ तुम्हारा मिले न मिले | 

कोशिश करो, ज़िंदगी का फूल पूरा खिल जाए अभी 
ये ख़ूबसूरत मौक़ा ‘ विर्क ’ दोबारा मिले न मिले | 

दिलबागसिंह विर्क 
*****

मंगलवार, जुलाई 18, 2017

ये ज़रूरी तो नहीं

वफ़ा के बदले वफ़ा मिले, ये ज़रूरी तो नहीं 
हर चाहत का सिला मिले, ये ज़रूरी तो नहीं।

किसकी पहुँच कहाँ तक है, ये अहमियत रखता है 
गुनहगारों को सज़ा मिले, ये ज़रूरी तो नहीं।

ये सच है, अच्छाई अभी तक ज़िंदा है, फिर भी 
यहाँ हर शख़्स भला मिले, ये ज़रूरी तो नहीं।

जिनकी फ़ितरत है बद्दुआएँ देना, वे देंगे ही 
तुझे हर किसी से दुआ मिले, ये ज़रूरी तो नहीं।

दिल से पूछकर, दिमाग से सोचकर, चल पड़ तन्हा 
हर राह के लिए क़ाफ़िला मिले, ये ज़रूरी तो नहीं।

कोशिश तो कर ‘विर्क’ अपने भीतर लौटने की 
इसी जन्म में ख़ुदा मिले, ये ज़रूरी तो नहीं।

दिलबागसिंह विर्क 

बुधवार, मार्च 22, 2017

प्रपंच

राजनीति पर्याय है प्रपंचों का
लेकिन राजनैतिक प्रपंच
निंदनीय नहीं
श्लाघनीय होते हैं
क्योंकि वे रचे जाते हैं
धर्म 
जातिय अभिमान
और राष्ट्रीय गौरव की आड़ में

यकीन न हो तो 
पलट लेना इतिहास के पन्ने
पढ़ लेना 
किसी भी कूटनितिज्ञ का जीवन चरित्र ।

दिलबागसिंह विर्क 
*****

बुधवार, मार्च 08, 2017

लड़कियाँ चिड़ियाँ नहीं होती

परों का 
कोई संबंध नहीं होता
उड़ान के साथ
उड़ान तो भरी जाती है
हौसले के दम पर

पर तो कुतर देती है दुनिया
घर बन जाते हैं पिंजरा
दरिंदे भी फैलाए रखते हैं जाल
मगर हौसले के दम पर
नभ छू ही लेती हैं लड़कियाँ
क्योंकि लड़कियाँ चिड़ियाँ नहीं होती
लड़कियाँ तो होती है लड़कियाँ ।

दिलबागसिंह विर्क

बुधवार, मार्च 01, 2017

बिटिया घर की शान

बाँहे फैलाए तुझे , बिटिया रही पुकार
तुम जालिम बनना नहीं , मांगे बस ये प्यार  |

निश्छल , मोहक , पाक है , बेटी की मुस्कान 
भूलें हमको गम सभी , जाएँ जीत जहान |

क्यों मारो तुम गर्भ में , बिटिया घर की शान 
ये चिड़िया-सी चहककर , करती दूर थकान | 

बिटिया कोहेनूर है , फैला रही प्रकाश 
धरती है जन्नत बनी , पुलकित है आकाश |

तुम बेटी के जन्म पर , होना नहीं उदास 
गले मिले जब दौडकर , मिट जाते सब त्रास |

    दिलबाग विर्क  

बुधवार, फ़रवरी 22, 2017

भूले-बिसरे पल

रामेश्वर कम्बोज, डॉ . भावना कुंवर और डॉ . हरदीप संधू जी द्वारा संपादित यादों के पाखी संकलन में शामिल मेरे कुछ हाइकु में से एक

बुधवार, फ़रवरी 15, 2017

यादें तुम्हारी

रामेश्वर कम्बोज, डॉ . भावना कुंवर और डॉ . हरदीप संधू जी द्वारा संपादित यादों के पाखी संकलन में शामिल मेरे कुछ हाइकु में से एक
*****

बुधवार, जनवरी 18, 2017

याद जो आई

रामेश्वर कम्बोज, डॉ . भावना कुंवर और डॉ . हरदीप संधू जी द्वारा संपादित यादों के पाखी संकलन में शामिल मेरे कुछ हाइकु में से एक
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