क्यों बेमतलब शोलों को हवा दी है
दिल के दर्द की, किसने दवा दी है।
मैं दोस्त कहूँ उसे या फिर दुश्मन
जिसने रातों की नींद उड़ा दी है।
पसीजे पत्थर दिल, ये मुमकिन नहीं
सुनाने को तो दास्तां मैंने सुना दी है।
बड़ा महँगा पड़े है दस्तूर तोड़ना
वफ़ा क्यों की, इसलिए सज़ा दी है।
बाक़ी रहते हैं अक्सर ज़ख़्मों के निशां
यूँ तो बीती हुई हर बात भुला दी है।
अब हश्र जो भी, प्यार करके हमने
ज़िंदगी ‘विर्क’ दांव पर लगा दी है।
दिलबागसिंह विर्क
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