बुधवार, मई 20, 2015

ये ज़िंदगी तल्ख़ दोपहर साक़ी

तेरे पास गर मय नहीं तो पिला दे ज़हर साक़ी 
बिन पिए लगे है ये ज़िंदगी तल्ख़ दोपहर साक़ी । 

ग़म का इलाज ढूँढ़ने आना पड़ता है पास तेरे 
क्या करें लोग, मंदिर नहीं होता सबका घर साक़ी । 

 फिर बताओ, क्यों न उड़ेंगी चैनो-सकूं की चिन्दियाँ 
हावी है दिलो-दिमाग पर कोई-न-कोई डर साक़ी । 

ये कैसे दस्तूर हैं ज़िंदगी के, बस ख़ुदा ही जाने 
शबे-ग़म के बाद होती नहीं ख़ुशियों की सहर साक़ी । 

दुआएँ बेअसर रहें, अनकिए गुनाहों की सज़ा मिले 
पता नहीं पत्थर है ख़ुदा या ख़ुदा है पत्थर साक़ी । 

जीने की चाह में ' विर्क ' रोज़ मरना पड़ता है 
ये हाल यहाँ, होगी तुझे भी इसकी ख़बर साक़ी । 

दिलबाग विर्क 
*****
मेरे और कृष्ण कायत जी द्वारा संपादित " सतरंगे जज़्बात " से 

बुधवार, मई 13, 2015

इस दिल दीवाने का क्या करें

अगर मुहब्बत की राह पर चला करें 
तो रफ़्ता-रफ़्ता मंज़िल की ओर बढ़ा करें । 

दग़ाबाज़ी हमारी हमें ले डूबेगी 
अभी भी वक़्त है, संभल जाएँ, वफ़ा करें । 

ज़िंदगी का दूसरा रुख दिखाई देगा 
ठंडे दिमाग से दूसरों की सुना करें । 

हालातों की ख़स्तगी कम होती नहीं 
आओ यारो मिलकर कोई दुआ करें । 

दुश्वारियाँ रास्ते की आसां हो जाएँ 
काश ! हम तूफ़ानों की सूरत उठा करें । 

जिसे चाहे बस उसी को ख़ुदा माने 
बता इस दिल दीवाने का क्या करें । 

देखना ' विर्क ' कहीं नासूर न बन जाएँ 
इन मुहब्बत के जख़्मों की दवा करें । 

दिलबाग विर्क 
*****

मेरे और कृष्ण कायत जी द्वारा संपादित पुस्तक " सतरंगे जज़्बात " से 

बुधवार, मई 06, 2015

शतरंज की बिसात

काबू में रखे न गए मुझसे अपने जज़्बात 
मैं बन गया लोगों के लिए शतरंज की बिसात । 

दिल के आसमां पर घिरे हैं ग़म के बादल 
हो उदासी की उमस, कभी अश्कों की बरसात । 

मेरा बोलना क्यों इतना बुरा हो गया है 
क्यों तकरार का मुद्दा बन जाती हर बात । 

मुक़द्दर से शिकवा करने के सिवा क्या करें 
हमारी कोशिशें भी जब बदल न पाई हालात । 

टूटे दिल के लिए बे'मानी हैं ये सब बातें 
कितना रौशन है दिन, कितनी अँधेरी है रात । 

खुशियाँ ' विर्क ' कैसे नसीब होती मुझको 
ज़िंदगी ने दी है परेशानियों की सौग़ात । 

दिलबाग विर्क 
*****
मेरे और कृष्ण कायत द्वारा संपादित " सतरंगे जज़्बात " में से 

शुक्रवार, मई 01, 2015

मजदूर की मजबूरी

हाँ ! मैं मजदूर हूँ
क़लम का मजदूर 
मगर मजदूरी करता हूँ शौक से 
शौक का 
कोई मेहनताना देता है कहीं 

मजदूर हूँ तो
वक़्त तो जाया करता ही हूँ
इस मजदूरी के लिए
सिर्फ़ वक़्त ही नहीं
पैसा भी
क्योंकि लिखता हूँ तो
चाहता हूँ छपना
और कौन छापता है किसी को
मुफ़्त में
जेब ढीली करके ही
खुद की लिखी पुस्तक
आती है अलमारी में

मेहनत किसी की भी हो
किसी-न-किसी का हित
करती ही है सदा 
मेरी मेहनत से
नहीं होगा किसी का हित
ऐसा तो नहीं 
मुझे छापने वाले
थोड़ा-बहुत तो कमा ही लेते हैं
मुझे छापकर

क़ीमत
पसीने की हो
या क़लम घिसाई की
कब मिलती है किसी को
मेहनत की लूट
हो रही है हर जगह
फिर मेरा लुटना
कुछ अर्थ नहीं रखता
कम-से-कम
मैं लुट रहा हूँ सहमति से
कम-से-कम
नाम होगा मेरा
ऐसा भ्रम तो है मुझे
मगर कुछ मजदूर तो ऐसे भी हैं
जो लुटते हैं
मजबूरी में 
निश्चित है जिनका 
गुमनाम मरना

दरअसल
मजदूर कोई भी हो
मजबूर तो होता ही है 
चाहे वह ख्वाहिशों से हो
या फिर पापी पेट से
और फायदा उठाया जाता है सदा
हर मजदूर की मज़बूरी का
लुटना तो मुकद्दर है
हर मजदूर का ।

- दिलबाग विर्क
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