तेरे पास गर मय नहीं तो पिला दे ज़हर साक़ी
बिन पिए लगे है ये ज़िंदगी तल्ख़ दोपहर साक़ी ।
ग़म का इलाज ढूँढ़ने आना पड़ता है पास तेरे
क्या करें लोग, मंदिर नहीं होता सबका घर साक़ी ।
फिर बताओ, क्यों न उड़ेंगी चैनो-सकूं की चिन्दियाँ
हावी है दिलो-दिमाग पर कोई-न-कोई डर साक़ी ।
ये कैसे दस्तूर हैं ज़िंदगी के, बस ख़ुदा ही जाने
शबे-ग़म के बाद होती नहीं ख़ुशियों की सहर साक़ी ।
दुआएँ बेअसर रहें, अनकिए गुनाहों की सज़ा मिले
पता नहीं पत्थर है ख़ुदा या ख़ुदा है पत्थर साक़ी ।
जीने की चाह में ' विर्क ' रोज़ मरना पड़ता है
ये हाल यहाँ, होगी तुझे भी इसकी ख़बर साक़ी ।
दिलबाग विर्क
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मेरे और कृष्ण कायत जी द्वारा संपादित " सतरंगे जज़्बात " से