*****
अर्जुन बोला कृष्ण से, उनके चलो समीप।
देखूँ अंतिम बार मैं, बुझने कितने दीप ।।13।।
माधव मानी बात है, रथ आया है बीच।
चिंता में अर्जुन पड़ा, सोचे आँखें मीच* ।।14।।
अर्जुन ऐसे है खड़ा, ज्यों सूँघा हो साँप ।
केशव को कहने लगा, हाथ रहे हैं काँप ।।15।।
बाँधव ही हैं सामने, मैं कैसे दूँ मार।
गांडीव गिरे हाथ से, मुझे हार स्वीकार ।।16 ।।
पुत्र, पितामह, तात पर, कैसे छोडूं बाण।
भाई-बाँधव मारकर, होगा क्या कल्याण ।। 17 ।।
सोचूँ जब हालात पर, पाप करे भयभीत ।
अपने कुल का नाश कर, नहीं चाहिए जीत ।।18।।
हूँ मैं क्षत्रिय जाति से, रण से करता प्रीत।
लेकिन सत्ता के लिए, बुरी युद्ध की रीत ।। 19 ।।
सिर्फ राजसुख ही नहीं, मिले अगर यह शोक
करता अस्वीकार हूँ, मैं तो तीनों लोक ।। 20 ।।
* बंद करके
*****
पुस्तक - गीता दोहावली
*****
डॉ. दिलबागसिंह विर्क