बुधवार, मार्च 28, 2018

वो बेक़सूर हो गया

दिल की कली मुरझा गई, चेहरा बेनूर हो गया 
मेरे ख़्वाबों का शीशमहल जब चकनाचूर हो गया।

ख़ुद को भूलने वाला दुनिया को क्या याद करेगा 
मगर ये लोग अब कहते हैं, मैं मग़रूर हो गया । 

बड़े रंग बदले हैं हमारी क़िस्मतों के खेल ने 
ख़ताबार मैं निकला और वो बेक़सूर हो गया ।

सुकूं से हूँ मैं, ऐसी तो कोई बात नहीं मगर 
ये तो है, मैं हादसों का आदी ज़रूर हो गया ।

जिसकी दवा हो वो दर्द भी क्या कोई दर्द है 
वही जानते हैं दर्द, ज़ख़्म जिनका नासूर हो गया। 

न हँसो तुम, इस ज़ालिम ने तुम्हारा भी नहीं होना 
वक़्त के हाथों ‘विर्क’ मैं अगर मजबूर हो गया । 

दिलबागसिंह विर्क 
******

बुधवार, मार्च 21, 2018

दिल की बस्ती में चुपके से आना

बेमुरव्वत, बेवफ़ा लोगों से क्या दिल लगाना 
मगर क्या करें, बेमुरव्वत है सारा ज़माना ।

उसूलों, रिवाजों के यहाँ पर बड़े सख़्त पहरे 
दिल की बस्ती में आना हो तो चुपके से आना। 

बस ये दो ही काम हैं मक़सद ज़िंदगी जीने के 
तुम्हें हर पल याद करना और ख़ुद को भुलाना। 

समझ लो आ गया है हुनर उसे ख़ुश होने का 
सीखा जिसने ग़म को रेत की मानिंद उड़ाना ।

मुहब्बत गुनाह नहीं गर मंज़ूर हो ये शर्त 
चाहत की आग में हर वक़्त दिल को जलाना। 

बस दीवानगी ही ले आई मुझे इश्क़ की राहों पर 
कभी सोचा नहीं ‘विर्क’ इस सफ़र में क्या है पाना। 

दिलबागसिंह विर्क 
*******

बुधवार, मार्च 14, 2018

वक़्त पाकर दिल को हौसला होगा

माना कि दिल तुम्हारा जला होगा 
मगर इसमें भी कुछ तो मज़ा होगा।

इसे इंतिहा तक पहुँच जाने दो 
फिर यह दर्द ख़ुद ही दवा होगा।

ज़माने के ग़म कुछ तो कम होंगे 
जहां में गर किसी का भला होगा। 

हल्के-हल्के सहलाना तुम ज़ख़्मों को 
वक़्त पाकर दिल को हौसला होगा। 

ये साँसें दग़ा दे जाएँगी तुम्हें 
बता इससे बढ़कर और क्या होगा।

वफ़ा को इबादत की तरह मानो 
होने दो ‘विर्क’ जो बेवफ़ा होगा।

दिलबागसिंह विर्क 
******

बुधवार, मार्च 07, 2018

न यूँ ही कर बदनाम मुझे

दोस्त कहूँ कि दुश्मन जिसने भेजे हैं ग़म के पैग़ाम मुझे
साक़ी बना बैठा है वो, पिलाकर अश्कों के जाम मुझे ।

मेरे पास भी है बहुत कुछ इस ज़माने को बताने लायक़ 
अब छोड़ दे बीती बातों को, न यूँ ही कर बदनाम मुझे ।

सरे-बज़्म अपने ज़ख़्मों की नुमाइश तो लगा दी तूने 
बता तो सही, इस इश्क़ ने दिए हैं कौन-से इनाम मुझे। 

सफ़र ज़िंदगी का कब कटता है सिर्फ़ यादों के सहारे 
ज़िंदा रहना चाहता हूँ मैं, करने दे कोई काम मुझे ।

इश्क़ करना, लुटना, फिर रोना, ये कोई हुनर तो नहीं
क्या था मैं, क्यों सिर-आँखों पर बैठाता अवाम मुझे । 

यूँ तो पागल दिल को जलाकर राख बना रखा है मगर 
अक्सर याद आता है ‘विर्क’ एक चेहरा सुबहो-शाम मुझे। 

दिलबागसिंह विर्क 
*****
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...