मंगलवार, अप्रैल 24, 2012

अगजल - 39

छूटता जा रहा है हंसते - खेलते जीने का फलसफा 
सियासत की छोडो, अब मोहब्बत में भी मिलता है दगा ।

दस्तूर इस जमाने के देखकर बड़ा हैरान हूँ मैं
पास-पास रहने वाले लोगों में है कितना फासिला ।
कैसे दिल को समझाऊं , शातिर था वो दिलो-दिमाग से
चेहरा जिसका मासूम था , लगता था जो बड़ा भला ।

चलो एक और आदमी की असलियत से हुए वाकिफ
ये कहकर समझाया दिल को, जब मिला कोई बेवफा ।

प्यार खुशियाँ देगा , ये वहम तो कब का उड़ चुका है
अब देखना ये है , मैं कब तक निभाता रहूँगा वफा ।

बड़ा गम उठाया है मैंने विर्क हकीकत बयाँ करके   
क्या मिला बोलकर, अब तो सोचता हूँ क्यों न चुप रहा ।

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शुक्रवार, अप्रैल 20, 2012

सहारा तिनके-सा ( हाइकु )

बनना तुम
सहारा तिनके-सा
धूप सर्दी की ।
जवाब मांगो 
हमारे वोटों से ही
मिली है सत्ता ।
सोचते नहीं
लकीर को पीटते
लोग अक्सर ।
बमों से कभी
फैसले नहीं होते
विनाश होता ।

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सोमवार, अप्रैल 16, 2012

धुआँ ( कविता )

बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों की
ऊँची-ऊँची चिमनियों से
अक्सर निकलता ही रहता है
विषाक्त धुआँ  ।
यह धुआँ
विषाक्त होकर भी
उतना विषाक्त नहीं होता
जितना कि वो धुआँ
जो उठता है 
स्वार्थों की आग में
मानवता के जलने से ।
यह धुआँ
जहां गला घोटता है 
रिश्तों का,
मानव संबंधों का
वहीं कर देता है अँधा 
आदमी को ।

खेद तो यह है कि 
इस धुएँ को
इस आग को
रोकने की
कोई कोशिश नहीं हो रही 
किसी के भी द्वारा
कहीं भी हो-हल्ला नहीं
इसके खिलाफ
जबकि सब तरफ
शोर मचा हुआ है
फैक्ट्रियों से निकलने वाले
विषाक्त धुएँ  को 
रोकने के लिए । 

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गुरुवार, अप्रैल 12, 2012

अग़ज़ल - 38

                   चलने को तो हम साथ चलते हैं
                   मगर ये दिल हैं कि कहाँ मिलते हैं ।

                   मुझे नफरत है नकाबपोशी से
                   और वो रोज चेहरा बदलते हैं ।

                   फिर दुनिया से शिकवा करें कैसे
                   आस्तीन में ही जब सांप पलते हैं ।
             
                   उन्हें भी होगा गरूर जवानी का
                   इस मौसम में सबके पर निकलते हैं ।
                 
                   मजहबों की आग को ठंडा करो
                   इसमें हजारों इंसान जलते हैं |


                   मुहब्बत को विर्क आजमाते रहना 
                   सुना है इससे पत्थर पिघलते हैं ।


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शुक्रवार, अप्रैल 06, 2012

ये दुआ करो ( हाइकु )

झूठ की जीत
सच की हार नहीं
हमारी हार ।
लोकतंत्र को
बनाओ मजबूत
स्वस्थ चर्चा से ।
गीता पढता
फल की चिंता मन
छोड़ता नहीं ।
महके फिजा
प्यार की खुशबू से
ये दुआ करो ।

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