मंगलवार, अप्रैल 29, 2014

उतारकर सब नग, मुहब्बत पहनो

तेरी याद छुपाकर सीने में
मजा आने लगा है जीने में |

मैकदे की तरफ भेजा जिसने
बुराई दिखती उसे पीने में |

हवाओं का रुख देखा न था
अब कसूर निकालो सफीने में |

रुतें बदलती हैं दिल को देखकर
आग लगे सावन के महीने में |

उतारकर सब नग, मुहब्बत पहनो
देखो दम कितना इस नगीने में |

जीने लायक सब कुछ है यहाँ पर
क्या ढूँढ रहे ' विर्क ' दफीने में |


रविवार, अप्रैल 27, 2014

ये दिल होता हुक्मरानों के पास नहीं

जले का ईलाज शम्अदानों के पास नहीं
गमों का हिसाब दीवानों के पास नहीं |

बेवफाई - बेहयाई ली बैठी है सबको
ख़ुशी की दौलत इंसानों के पास नहीं |

सकूं मिला तो मिलेगा अपनों के पास
न ढूंढो इसे, यह बेगानों के पास नहीं |

आशिकों के काम की चीज़ है, वहीं देखो
ये दिल होता हुक्मरानों के पास नहीं |

मुल्क बेचकर घर भरते रहते हैं अपना
शर्मो-हया सियासतदानों के पास नहीं |

छूट चुके हैं जो तीर, लगेंगे निशाने पर
कोई ईलाज अब कमानों के पास नहीं |

जिन्दगी की उलझनों में उलझते चले गए
इनका हल ' विर्क ' नादानों के पास नहीं |




शनिवार, अप्रैल 26, 2014

क्या वक्त साँचों मे ढलता है ?

वो बात - बात पर हँसता है
लोगों को पागल लगता है |

हो रहा ये अजूबा कैसे
आँधियों में चिराग जलता है |

सिकन्दर है वो, या कलंदर
जो दिल में आया करता है |

वक्त के साँचे में ढलते सब
क्या वक्त साँचों मे ढलता है ?

सुना तो है मगर देखा नहीं
पाप का ये घड़ा भरता है |

उसूलों की बात मत छेड़ो
यहाँ पर ' विर्क ' सब चलता है |



शुक्रवार, अप्रैल 25, 2014

बातचीत बहाल कर

दिल में कोई गलतफहमी है तो सवाल कर
तेरी महफ़िल में आया हूँ, कुछ तो ख्याल कर |

मिल बैठकर सुलझाएगा तो सुलझ जाएँगे मुद्दे
न लगा चुप का ताला , बातचीत बहाल कर |

सोच तो सही तेरे दर के सिवा कहाँ जाऊँगा
तेरा दीवाना हूँ , न मुझे यूँ बेहाल कर |

मैं पश्चाताप करूंगा बीते दिनों के लिए
अपनी गलतियों का तू भी मलाल कर |

कोशिश है मेरी ' विर्क ' तेरा साथ देने की
तोड़ दे नफरत की दीवार, आ ये कमाल कर

बुधवार, अप्रैल 23, 2014

जो तेरे साथ बीती जिन्दगी वही थी |

       
       प्यार भरे दिलों में दीवार उठी थी
       दूर हो गए हम, कैसी हवा चली थी |

       एक मोड़ पर आकर हाथ छूट गया
       भरी दोपहर में फिर शाम ढली थी |

       महफिल में आया जब भी नाम तेरा
       सीने में तब एक कसक उठी थी |

       हर बीता दिन गहरे जख्म दे गया
       दम तोडती रही जो आस बची थी |

       दिन तो अब भी कट रहे हैं किसी तरह
       जो तेरे साथ बीती जिन्दगी वही थी |

       बस यही सोचकर खुश हो रहे हैं हम
       जुदा होकर ' विर्क ' मिली तुझे ख़ुशी थी |

                              ******

शनिवार, अप्रैल 19, 2014

पुस्तक - चंद आँसू, चंद अल्फ़ाज़

वर्ष 2005 में मेरा ग़ज़लनुमा कविताओं का संग्रह प्रकाशित हुआ था , मैं इसे PDF FILE के रूप में यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ  | आशा है आप इसे पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया देंगे ।

मंगलवार, अप्रैल 08, 2014

महफ़िल में तेरा नाम उछाला न गया

दिल में तूफ़ान उठा जो, टाला न गया 
टूट गया मैं, खुद को संभाला न गया |

तू चुपके से आया था मेरे दिल में 
दिल से तुझको ताउम्र निकाला न गया | 

सोच न पाया, नुक्सान-नफे की बातें 
जग के साँचे में खुद को ढाला न गया |

 आँसू पी लेना ठीक लगा था मुझको
महफिल में तेरा नाम उछाला न गया |

मेरे सिर चढ़कर बोले जादू तेरा 
बातों में तेरा यार हवाला न गया |

यूँ तो हर ओर अँधेरा है गम का पर 
तेरी यादों का ' विर्क ' उजाला न गया |

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रविवार, अप्रैल 06, 2014

मैं कहूँ मिसरा, बना दे शे'र तू

उम्र  से  है  बेहतर ,  ये  एक  पल 
चल जहाँ तक हो सके, तू साथ चल । 

सीख  ले  जीना , मिली है जिंदगी 
वक्त का पहिया चले कल, आज, कल । 

है मुहब्ब्त का तरीका बस यही 
प्यार पाने के लिए खुद को बदल । 

गलतियों को देखना तू छोड़ दे 
भूलकर सब कुछ , कभी तो कर पहल । 

ये सियानफ मार डालेगी तुझे 
दिल न बन नादान, बच्चे-सा मचल । 

मैं कहूँ मिसरा, बना दे शे'र तू 
इस तरह से ' विर्क ' पूरी हो ग़ज़ल । 
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शुक्रवार, अप्रैल 04, 2014

रात आँसू बहाती रही

दिल करे लोभ, दुनिया लुभाती रही 
हम फँसे जाल में, ये फँसाती रही |

इस चमन में जहाँ गूँज मातम रहा 
देख बुलबुल वहीँ गीत गाती रही |

खून है वो जिगर का, न शबनम कहो 

तोडना चाहती है मेरा हौंसला 

रोक पाई नहीं मंजिलें भी मुझे 
नित नई राह मुझको बुलाती रही |

मैं बड़े गौर से सुन रहा हूँ इसे 
जिन्दगी ' विर्क ' सुख-दुख सुनाती रही |
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