मंगलवार, अक्तूबर 24, 2017

उतारकर सब नग, मुहब्बत पहनो

तेरी याद छुपाकर सीने में 
मज़ा आने लगा है जीने में।

मैकदे की तरफ़ भेजा था जिसने 
बुराई दिखती है अब उसे पीने में।

हवाओं का रुख देखा नहीं था 
क़सूर निकालते हैं सफ़ीने में।

रुत बदली दिल का मिज़ाज देखकर 
आग लगी है सावन के महीने में।

उतारकर सब नग, मुहब्बत पहनो 
देखो कितना दम है इस नगीने में।

जीने लायक़ सब कुछ है यहाँ पर 
क्या ढूँढ़ रहे हो ‘विर्क’ दफ़ीने में।

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, अक्तूबर 18, 2017

जो तेरे साथ बीती, ज़िंदगी वही थी

प्यार भरे दिलों में दीवार उठी थी 
दूर हो गये हम, कैसी हवा चली थी। 

एक मोड़ पर आकर हाथ छूट गया 
भरी दोपहर में एक शाम ढली थी।

महफ़िल में आया जब भी नाम तेरा 
मेरे सीने में एक कसक उठी थी । 

हर बीता दिन गहरे ज़ख़्म दे गया 
दम तोड़ती रही, जो आस बची थी।

दिन तो अब भी कट रहे हैं किसी तरह 
जो तेरे साथ बीती, ज़िंदगी वही थी।

बस यही सोचकर ख़ुश हो लेते हैं हम 
जुदा होकर ‘विर्क’ तुझे ख़ुशी मिली थी।

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दिलबागसिंह विर्क 

बुधवार, अक्तूबर 11, 2017

दिल तो आख़िर दिल है, एक बार तड़पा होगा

उसकी महफ़िल में जब मेरा ज़िक्र हुआ होगा 
उसकी ख़ामोशियों ने कुछ तो कहा होगा।

क़समें वफ़ा की भुलाना आसां तो नहीं होता 
दिल तो आख़िर दिल है, एक बार तड़पा होगा।

जिनकी मतलबपरस्ती ने किया बदनाम इसे 
ख़ुदा मुहब्बत का ज़रूर उनसे ख़फ़ा होगा। 

प्यार करके मैंने क्या पाया, तुम ये पूछते हो 
मेरी रुसवाई का चर्चा तुमने सुना होगा।

दिल को यारो अब किसी का एतबार न रहा 
इससे बढ़कर भी क्या कोई हादसा होगा।

इस दर्द का अहसास तो होगा ‘विर्क’ तुम्हें
उम्मीदों का चमन कभी-न-कभी उजड़ा होगा।

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, अक्तूबर 04, 2017

कभी खींच लिया दोस्तों ने, कभी फिसल गए

ये तो ख़बर नहीं, आज गए या कल गए 
ख़ुशी जब मेहमान थी, गुज़र वो पल गए।

उनसे पूछो तुम वफ़ा के मा’ने क्या हैं 
अरमानों को जिनके हमदम कुचल गए।

शिखर पर पहुँचा न गया हमसे बस इसलिए 
कभी खींच लिया दोस्तों ने, कभी फिसल गए।

हमें हराया हालातों से लड़ने की ज़िद ने 
जीत हुई उनकी, जो बचकर निकल गए।

ये दौर, हैरतअंगेज़ कारनामों का है 
यहाँ खरे लुढ़कते रहे, खोटे चल गए

ज़िंदगी ‘विर्क’ इस तरह गुज़रती रही 
फिर ठोकर खाई, जब लगा संभल गए।

दिलबागसिंह विर्क 
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