प्यार भरे दिलों में दीवार उठी थी
दूर हो गये हम, कैसी हवा चली थी।
एक मोड़ पर आकर हाथ छूट गया
भरी दोपहर में एक शाम ढली थी।
महफ़िल में आया जब भी नाम तेरा
मेरे सीने में एक कसक उठी थी ।
हर बीता दिन गहरे ज़ख़्म दे गया
दम तोड़ती रही, जो आस बची थी।
दिन तो अब भी कट रहे हैं किसी तरह
जो तेरे साथ बीती, ज़िंदगी वही थी।
बस यही सोचकर ख़ुश हो लेते हैं हम
जुदा होकर ‘विर्क’ तुझे ख़ुशी मिली थी।
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दिलबागसिंह विर्क
3 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (20-10-2017) को
"दीवाली पर देवता, रहते सदा समीप" (चर्चा अंक 2763)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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दीपावली से जुड़े पंच पर्वों की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह।
बहुत सुन्दर प्यारी प्रस्तुति
आपको जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं
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