बुधवार, जून 19, 2019

चलना, थकना, हारना, बस यही मेरा मुक़द्दर था


कुछ कोशिशें नाकाफ़ी थी, कुछ लकीरों का असर था
चलना, थकना, हारना, बस यही मेरा मुक़द्दर था।

न तो ख़ुशियाँ बटोर सका, न ही ठुकरा पाया इसे
मेरा बसेरा कभी सराय, कभी मकां, कभी घर था।

ग़ैर तो ग़ैर थे आख़िर मौक़े मुताबिक़ बदल गए
वे अपने ही थे, मारा जिन्होंने पहला पत्थर था।

लोग तो दुश्मन बनेंगे ही, झूठ को झूठ कहने पर
गिला क्यों करें, जब ख़ुद चुना दुश्वार सफ़र था।

मुझे पागल साबित करके वो बच गए इल्ज़ामों से
आख़िरकार विर्कवही हुआ जिसका मुझे डर था।

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, जून 12, 2019

बस इतना ही फ़र्क़ होता, फ़र्ज़ानों और दीवानों में


दिल की कश्ती को उतारें मुहब्बत के तूफ़ानों में
शुमार होता है उनका, ग़ाफ़िलों में, नादानों में।

वो यकीं रखे ज़ेहनीयत में, ये दिल को दें अहमियत
बस इतना ही फ़र्क़ होता, फ़र्ज़ानों और दीवानों में।

कसक के सिवा क्या पाओगे तहक़ीक़ात करके
उनकी मग़रूरी छुपी हुई है उनके बहानों में।

वो हमदम भी है, क़ातिल भी, तमाशबीन भी
तुम्हीं बताओ, उसे रखूँ अपनों में या बेगानों में।

चाँद को हँसते देखा, चकोर को तड़पते देखा
ऐसा वाक़िया आम हो चला दिल के फ़सानों में।

विर्कबहारें उनको फिर कभी नसीब नहीं होती
साथी छोड़कर चले गए हों जिन्हें वीरानों में।

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, जून 05, 2019

बेवफ़ाई का मुद्दा उठाऊँ क्या ?


तुझे तेरी नज़रों से गिराऊँ क्या ?
बेवफ़ाई का मुद्दा उठाऊँ क्या ?

क्या महसूस कर सकोगे मेरा दर्द
अपने ग़म की दास्तां सुनाऊँ क्या ?

मेरे पास है बस वफ़ा की दौलत
बताओ, दिल चीर के दिखाऊँ क्या ?

घुले-मिले पड़े हैं, ग़म-ख़ुशी के पल
याद रखूँ किसे और भुलाऊँ क्या ?

सियासत नहीं, मुहब्बत की है मैंने
फिर इस ज़माने से छुपाऊँ क्या ?

यूँ तो विर्कनिराशा मिली हर बार
अपना मुक़द्दर फिर आज़माऊँ क्या ?

दिलबागसिंह विर्क 
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