बुधवार, फ़रवरी 25, 2015

शराफत का लिबास उतारा नहीं

मझधार ही मझधार हैं, कोई किनारा नहीं 
मतलबपरस्त दुनिया में, मिलता सहारा नहीं । 

वो तो कब के भूल चुके हैं कसमें वफ़ा की 
 याद करवाऊँ उन्हें, ये मुझे गवारा नहीं । 
हैवानों की दुनिया में न जाने कब हार जाऊँ 
अभी तक तो शराफत का लिबास उतारा नहीं । 

जी चाहता है, मस्त रहूँ बस अपनी ही धुन में
मगर यूँ बेपरवाह हुए भी होता गुजारा नहीं । 

दौलत-शोहरत ही सब कुछ हुआ नहीं करती 
फिर क्या हुआ अगर बुलंद अपना सितारा नहीं । 

ज़िंदगी कैसे जी है ' विर्क ' मैं जानता हूँ 
ये सच है, तेरी बेवफाई ने मुझे मारा नहीं । 

दिलबाग विर्क 
*****
काव्य संकलन - हृदय के गीत 
संयोजन - सृजन दीप कला मंच, पिथौरागढ़ 
प्रकाशन - अमित प्रकाशन, हल्द्वानी ( नैनीताल )
प्रकाशन वर्ष - 2008 

बुधवार, फ़रवरी 18, 2015

सब कुछ होती जा रही सरहदें

जब तक रहेंगी नफ़रतें इस जहां में 
लुटती रहेंगी लोगों की मुहब्बतें । 
इंसां को न वो पूछते हैं, न हम 
बस सब कुछ होती जा रही सरहदें । 

न छटा अगर साया स्याह रात का 
कैसे सजेंगी खुशियों भरी महफ़िलें । 

मातम मनाते हैं मगर करते कुछ नहीं 
यूँ तो न लेगा कभी बुरा वक्त करवटें । 

कभी तुम दिल की सिलवटें भी निकालना 
निकालते हो रोज, कपड़ों की सिलवटें । 

छोटी हों या बड़ी ' विर्क ' कुछ फर्क नहीं 
अक्सर अधूरी ही रह जाती हैं हसरतें ।

दिलबाग विर्क 
*****
काव्य संकलन - साधना सार्थक रहेगी 
संपादक - जय सिंह अलवरी 
प्रकाशन - राहुल प्रकाशन, सिरगुप्पा 
वर्ष - 2008  

बुधवार, फ़रवरी 11, 2015

चले हम भले ही कदम डगमगाते रहे

मेरी हार की बात मुझे याद दिलाते रहे 
लोग आकर पास मेरे कहकहे लगाते रहे । 

सोचा था, छोड़ दूँ उसकी याद में पीना 
मगर यादों के साए मै-कदे तक लाते रहे । 

हमदर्दी जताने आए थे, उन्हें रोकता कैसे 
वो इसी बहाने मेरे जख्मों को सहलाते रहे । 
टूटे दिल ने कहा, क्या है जिंदगी के सफ़र में 
मगर चले हम भले ही कदम डगमगाते रहे । 

क्या करें, रूठना अब आदत हो गई है उनकी 
आदत से मजबूर होकर हम जिन्हें मनाते रहे । 

शायद वो देखना चाहते हैं हौंसला मेरा 
इसीलिए आशियाने पर बिजलियाँ गिराते रहे । 

जो थे ' विर्क ' कातिल मेरी खुशियों-अरमानों के 
बेबसी देखो, हम उन्हीं को अपना बुलाते रहे । 

दिलबाग विर्क 
*****
काव्य संकलन - साधना सार्थक रहेगी 
संपादक - जयसिंह अल्व्री 
प्रकाशक - राहुल प्रकाशन, सिरुगुप्पा ( कर्नाटक )
प्रकाशन वर्ष - 2008

बुधवार, फ़रवरी 04, 2015

अनोखे हैं मि. अनोखे लाल

अनोखे लाल जी को तो आप जानते ही होंगे ? क्या कहा !! नहीं जानते ? आप भी कमाल करते हैं। आपके शहर में, आपके मोहल्ले की आप वाली गली में, आपके घर के पास ही उनका घर है। रोज सुब्ह-शाम दुआ-सलाम भी होती है आपकी उनसे, फिर भी आप कहते हैं कि आप उन्हें जानते नहीं !!
                      अब तो कुछ-कुछ याद आ रहा होगा। हाँ, हाँ, वही अनोखे लाल जी, जो बातें ऐसे करते हैं, जैसे राज्य के मुख्यमंत्री उनकी जेब में हों। किसी भी दफ़्तर का कोई भी काम करवाने का आश्वासन आप कभी भी उनसे प्राप्त कर सकते हैं। आपने भी कहे थे उनसे दो-चार काम। एक तो अपना बकाया निकलवाने का काम, जिसका दस प्रतिशत कमीशन देना पड़ा था आपको। दूसरा श्रीमती जी के तबादले का काम, जिसके लिए तीस हजार थमाए थे आपने अनोखे लाल जी को। इसके अतिरिक्त आपने अपने लाल को, जिसे अपना नाम भी नहीं लिखना आता, दसवीं पास करवाने का ठेका दिया था उनको। अब तो ध्यान में आ गया न! कितनी मेहनत करते हैं अनोखे लाल जी। आपके बेटे के लिए परीक्षा केंद्र से लेकर शिक्षा बोर्ड़ तक कितने चक्कर लगाए थे उन्होंने। हर काम के पीछे उनका समर्पण काबिले-तारीफ है।
                         अब यह न कहना कि वे तो रोज दो बार चाय आपके घर पीते हैं। आपकी गाड़ी भी यदा-कदा उन्हें उनकी मंज़िल तक पहुँचाती है। देखो भाई, जब वे काम आपका करवाते हैं, तो इतना हक़ तो उनका बनता ही है। काम करवाकर तो आप बहुत ख़ुश होते हैं मगर इन छोटी-छोटी बातों को लेकर परेशान हो उठते हैं। अजी बनिये मत, मुझे सब पता है। जब भी अनोखे लाल जी आपके घर आते हैं, आपका रंग उतर जाता है। उनकी छोटी-छोटी फ़रमाइशों पर आप मन-ही-मन खूब झल्लाते हैं। उनको इंकार करने की हिम्मत तो आप में होती नहीं, इसलिए उनके जाते ही आप अपना सारा गुस्सा हाथ में पकड़े हुए अख़बार को जमीन पर पटककर निकालते हैं। ये बातें आपको शोभा नहीं देती।
                      अब आप याद करें, जब आपको मोहल्ले में, दफ़्तर में कभी कोई परेशानी होती है तो आपको सबसे पहले किसकी याद आती है, अनोखे लाल जी की ही न! सब जानते हैं मुसीबत के वक्त न कोई भाई साथ देता है, न दोस्त। आप अपने अनुभव के कारण ही ऐसे समय अनोखे लाल की शरण लेते हैं। बुद्धम् शरणम् गच्छामि कहने वाले को हो सकता है, कभी निराशा हाथ लगे, मगर अनोखे लाल शरणम् गच्छामि कहने वाले को न आज तक निराशा हाथ लगी है, न लगेगी । आप भी तब उनसे कैसे बातें करते हैं, जरा सोचिये। चलो मैं ही बताए देता हूँ। तब आपके चेहरे पर बनावटी-सी मुस्कान चिपकी रहती है। आपकी बोली में क्विण्टल भर चीनी घुली रहती है, जिसके कारण उसकी मिठास इतनी अधिक होती है कि सुनने वाले को शूगर होने की पूरी-पूरी संभावना रहती है मगर यह तो अनोखे लाल जी का हौसला है कि वह इस मिठास को न सिर्फ निगल जाते हैं अपितु इसे पचा भी लेते हैं। दरअसल वे आदी हैं इन बातों के। आपके जैसे अनेक लोग मिलते हैं उन्हें। संकट के समय आप उनकी सेवा करने को इतने आतुर होते हैं कि अगर वे एक इशारा कर दें तो आप सूर्य देवता को हिंद महासागर में डुबो दें, लेकिन काम निकलते ही आपके तेवर बदल जाते हैं।
                        आपको सोचना चाहिए कि हर चीज़ की कीमत चुकानी पड़ती है। अगर आप अनोखे लाल जी से काम करवाते हैं तो आपको भी उनके काम आना चाहिए। आपको उनकी छोटी-छोटी जरूरतों का ख्याल रखना चाहिए। आपको भी अनोखे लाल जैसा बनना चाहिए जो हर समय 'न सावन हरे न भादों सूखे ' की तर्ज पर सदा एक-सा व्यवहार करते हैं और सबसे मुस्कराकर मिलते हैं। उनकी मुस्कराहट असली होती है, आपकी मुस्कारहट जैसी बनावटी नहीं। ऐसा नहीं कि वे आपकी नीयत से परिचित नहीं, बल्कि उन्हें पूरी ख़बर होती है कि आप मुसीबत में फँसे होने पर ही उनको याद करते हैं वरना तो एक कप चाय पिलाते आपकी नानी मरती है। ये तो महानता है अनोखे लाल जी की कि वे इस बात को दिल पर नहीं लेते और वक़्त-बेवक़्त अपनी छोटी-छोटी फ़रमाइशों के साथ अपनी याद दिलाने के मक़सद से आपके दरवाजे पर दस्तक देते रहते हैं।
                      अब आप सोच रहे होंगे कि मुझे इन सब बातों की इतनी सटीक जानकारी कैसे है। आप शायद घबरा भी गए होंगे कि कहीं मैंने आपके पीछे कोई जासूस तो नहीं छोड़ा हुआ। घबराइए मत, ऐसा कुछ नहीं है। वास्तविकता तो यह है कि जैसे आप हैं, वैसा ही मैं हूँ। बिल्कुल आपके जैसा ही व्यवहार मेरा है। रही बात अनोखे लाल जी की तो एक अनोखे लाल मेरे घर के पास भी रहते हैं। यदि इससे भी ज्यादा जानने की इच्छा है तो सच्चाई यह है कि हर शहर के हर मोहल्ले की हर गली में कम-से-कम एक अनोखे लाल अवश्य होता है। इन अनोखे लालों की बदौलत ही आम जनता के काम हो रहे हैं वरना भारत के नेताओं और अधिकारियों का कद इतना ऊँचा है कि उनसे मिलना, उनसे अपनी समस्या कहना आम आदमी के बूते की बात नहीं। यह तो दलालों, क्षमा करना मैं गलत और असभ्य शब्द का प्रयोग कर गया, दलाल या मध्यस्थ नहीं, बल्कि सभ्य भाषा में कहें तो समाज सेवकों की मेहरबानी से आम जनता की सुनवाई होती है । अगर इस देश में समाज सेवक यानि अनोखे लाल न हों तो देश में पूरी तरह अव्यवस्था फैल जाए।
                 आप अपने मोहल्ले के अनोखे लाल के क्रिया-कलापों पर कुछ दिन नजर रखें। आप इनकी दिनचर्या देखकर हैरान रह जाएँगे। भारत के अधिकाँश लोग आलसी हैं जो अपने हर काम के लिए किसी न किसी का सहारा ताकते रहते हैं, मगर अनोखे लाल आलसी नहीं होगा। हो ही नहीं सकता, पूरे मोहल्ले की जिम्मेदारी जो रहती है उसके कंधों पर। इस जिम्मेदारी को निभाने के लिए आलस्य तो छोड़ना ही पड़ता है और अनोखे लालों ने अपना आलस्य हम लोगों को दे रखा है। वे खुद मेहनती आदमी हैं। दिन भर इधर से उधर घूमना, इस दफ़्तर से उस दफ़्तर के चक्कर लगाना उनका रोजमर्रा का काम है। सचमुच अनोखे होते हैं मि. अनोखे लाल।

दिलबाग विर्क
वेब पत्रिका ' साहित्य रागिनी ' के जनवरी अंक में शामिल 
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