बुधवार, जनवरी 29, 2020

हर किसी को साहिल न मिले है

जैसे सूरज उगने के बाद दिन ढले है
ऐसे क़िस्मत मेरी रोज़ रंग बदले है।

आख़िर बुझना ही होगा देर-सवेर इसे
दौरे-तूफ़ां में कब तलक चिराग़ जले है।

दिन-ब-दिन जवां हुई, इसका इलाज क्या
मेरे इस दिल में तेरी जो याद पले है।

न गवारा था मुझको अश्क बहाना लेकिन
इस तक़दीर पर कब किसी का ज़ोर चले है।

क़ियामत से भी बढ़कर होती है वो कसक
जब भी मेरा ये दिल दीवाना मचले है।

मंजिल से बढ़कर हुए है अहमियत सफ़र की
सुन ऐ ‘विर्क’, हर किसी को साहिल न मिले है।

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, जनवरी 22, 2020

बिक रहे हैं लोग सरेआम दोपहर में

हमने दिल दिया था जिनको एक नज़र में 
वो हमें अपना बना न पाए, पूरी उम्र में। 

न जज़्बों की अहमियत, न दिलों की क़द्र 
आ गया हूँ मैं, पत्थरों के किस शहर में। 

दीवारें ही दीवारें खींच दी यहाँ-वहाँ 
पूरी बस्ती ही बना डाली एक घर में। 

इनकी नादानियों पर हँसी आती है 
ज़िंदगी तलाशें, नफ़रतों के ज़हर में। 

देखो, रात का भी इंतज़ार नहीं इनको 
बिक रहे हैं लोग सरेआम दोपहर में। 

मेरी ज़िंदगी बेतरतीब थी ‘विर्क’ इसलिए 
मैं बाँध न पाया ग़ज़ल को किसी बहर में। 

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, जनवरी 15, 2020

चाँद का घर है आसमां

वफ़ा को परखता है, मुहब्बत का इम्तिहां
नज़राने में देता है ये, ज़ख़्मों के निशां।

पागल दिल पागलपन कर ही बैठता है
नाम के साथ जुड़ जाती है दर्द की दास्तां।

हसरतों को लगाम देना आया ही नहीं
मैं भूल गया था, चाँद का घर है आसमां।

तूने अहमियत नहीं दी, ये बात और है
आँखों का वादा तो था, तेरे-मेरे दरम्यां।

जाने उसे कौन-सी क़ाबिलीयत दिखी मुझमें
ये ग़म सदा ही रहा है मुझ पर मेहरबां।

मैंने तो विर्कबयां किया है बस अपना ग़म
ख़ुद-ब-ख़ुद हो गया है, ग़म ज़माने का बयां।

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, जनवरी 08, 2020

ख़ुशी वापस मिलेगी, जब इसे फैलाओगे

जुदा होकर जब तुम मुझसे दूर चले जाओगे 
क्या बताएँ तुम्हें, तब कितना याद आओगे। 

शामिल हो तुम मेरे ख़्यालों-ख़्वाबों में 
यादों की ख़ुशबू से तन-मन महकाओगे। 

दोस्ती की बेल पर खिलते ही रहेंगे फूल 
अगर रंजिशों को अपने दिल से मिटाओगे। 

जब भी समेटना चाहोगे, न रहेगी पास 
ख़ुशी वापस मिलेगी, जब इसे फैलाओगे।

क़िस्मत मौक़े मुहैया कराएगी यक़ीनन 
अगर तुम ख़ुद को बार-बार आज़माओगे। 

दूरियाँ देखना कभी मुद्दा नहीं होंगी 
जब भी सोचोगे, ‘विर्क’ क़रीब पाओगे। 

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, जनवरी 01, 2020

आशियाने के तिनके बिखर गए


बहारों के दिन तो दोस्तो कब के गुज़र गए
कच्चे रंग थे, पहली बारिश में ही उतर गए।

कोई तमन्ना नहीं अब नए ज़ख़्म खाने की
उन्हीं ज़ख़्मों की जलन बाक़ी है, जो भर गए।

हमसफ़र था जो, वो आँधियाँ लेकर आया था
संभले न हमसे, आशियाने के तिनके बिखर गए।

आख़िर एक दिन हमें टकराना ही पड़ा उनसे
जब किनारा करके निकले, वे समझे डर गए।

घर से मिली रुसवाई हमें ले आई मैकदे
मैकदे से रुसवा होकर फिर वापस घर गए।

दग़ाबाज को दग़ाबाज कहना छोड़ा ही नहीं
यह ग़लती विर्कहम जाने-अनजाने के गए।

दिलबागसिंह विर्क 
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