वफ़ा को परखता है, मुहब्बत का इम्तिहां
नज़राने में देता है ये, ज़ख़्मों के निशां।
पागल दिल पागलपन कर ही बैठता है
नाम के साथ जुड़ जाती है दर्द की दास्तां।
हसरतों को लगाम देना आया ही नहीं
मैं भूल गया था, चाँद का घर है आसमां।
तूने अहमियत नहीं दी, ये बात और है
आँखों का वा’दा तो था, तेरे-मेरे दरम्यां।
जाने उसे कौन-सी क़ाबिलीयत दिखी मुझमें
ये ग़म सदा ही रहा है मुझ पर मेहरबां।
मैंने तो ‘विर्क’ बयां किया है बस अपना ग़म
ख़ुद-ब-ख़ुद हो गया है, ग़म ज़माने का बयां।
दिलबागसिंह विर्क
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3 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर और सार्थक
जी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (17-01-2020) को " सूर्य भी शीत उगलता है"(चर्चा अंक - 3583) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता 'अनु '
बहुत सुंदर प्रस्तुति
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