शुक्रवार, फ़रवरी 25, 2011

अगज़ल - 11

दोस्त बनाकर देखो , दुश्मनी में रखा क्या है 
खुदा का है हर आदमी , हर आदमी खुदा है ।

जमाने की निगाहों से न देखो तुम जिन्दगी को
ये सब गम लगें हैं ख़ुशी उसे जो बा - वफा है । 

यहाँ भी हो दिलों की कद्र वहीं सजदा कर दो 
तुम्हें क्या लेना कि वो का'बा है या मैकदा है । 

कान सुनेंगे कैसे , दरवाजे की दस्तक नहीं 
दिल से सुनो इसे , ये मुहब्बत दिल की सदा है ।

मतलबी दुनिया ने बनाए हैं बाकी सब नियम 
प्यार , वफा बस यही इंसानियत का कायदा है ।
हो सके तो ' विर्क ' दुश्मनों को भी गले लगाना 
यही जिन्दगी है , यही जिन्दगी का फलसफा है ।

दिलबाग विर्क
* * * * *
      सदा --- आवाज़ 
      फलसफा --- फिलासफी , दर्शन 
                  * * * * *

रविवार, फ़रवरी 20, 2011

हाइकु - 2

     नहीं स्वीकार्य 
   हिंदी के मूल्य पर 
   मातृभाषा भी .
  
              रास्ते हैं धर्म
              मंजिल है ईश्वर 
              विवाद क्यों है .
   हर काम में
   हम लाभ ढूंढते 
   कितने स्वार्थी  !
                   मैं हूँ विद्वान
                   मैं हूँ समझदार 
                   भ्रम में सभी  !
    ताली बजती
    सदैव दो हाथों से
    एक से नहीं   .
                बुरे हैं नेता 
                हैरानी किसलिए 
                आदमी वे भी .
       चुप रहना 
       मजबूरी क्यों बनी 
       आम जन की  ?
                  इच्छा सबकी 
                  बदल दें समाज 
                  अपने सिवा .
       नकल रोको 
       नारे लगाते सब 
       चाहते नहीं .
                    बुत्त जलता 
                    दशहरे के दिन 
                    रावण नहीं .
  
           * * * *      

सोमवार, फ़रवरी 14, 2011

अग़ज़ल - 10

तन्हा होने से बुरा है तन्हाइयों का अहसास 
बरसती हैं आँखें मगर बुझती नहीं दिल की प्यास |

गम में दिखाई नहीं देती खुशियों की बूँदें इसलिए 
खुशियों भरे लम्हें , लगते हैं अक्सर उदास-उदास |

देखना है कितना ऐशो-आराम पाएँगे वो 
अपनों को छोडकर गए हैं जो अजनबियों के पास |

जिसे भी ठीक समझा वही गलत निकला , अब तुम 
या नतीजा बदल दो , या छोड़ दो लगाना कियास |

क्या बताऊँ अब कि यहाँ कैसा है कौन-सा शख्स 
न तो गैरों को पहचानता हूँ मैं , न हूँ खुदशनास |

काबिले-तारीफ है उनका ठोकर खाकर सम्भलना 
इश्क में टूटकर ' विर्क ' मैं तो आज तक हूँ बदहवास |

दिलबाग विर्क 
* * * * *
                             कियास --- अनुमान 
                                  ख़ुदशनास --- अपने आप को जानने वाला 
                                  बदहवास --- उद्विग्न 
                                  *****

गुरुवार, फ़रवरी 10, 2011

बिटिया

बेटी न कहो मुझे 
मैं आपका बेटा हूँ पापा ।
यह जिद्द 
बिटिया करती है अक्सर 
पता नहीं 
क्यों और कैसे 
लड़का होने की चाह
घर कर गई है 
उसके मन में ।

वैसे मान सकता हूँ मैं 
बेटा - बेटी एक समान होते हैं 
बेटी भी बेटा ही होती है 
मगर नहीं मान पाता 
बेटी को बेटा 
कैसे मानूं  ?
क्यों मानूं  ?
बेटी को बेटा 
बेटा होना कोई महानता तो नहीं 
बेटी होना कोई गुनाह तो नहीं 
बेटी का बेटी होना ही 
क्या काफी नहीं  ?
क्यों पहनाऊँ मैं उसे 
बेटे का आवरण  ?

नासमझ 
नन्हीं बिटिया को 
जिद्द के चलते 
भले ही मैं 
कहता हूँ बेटा उसे 
मगर मेरा अंतर्मन 
मानता है उसे 
सिर्फ और सिर्फ 
प्यारी-सी बिटिया .....

दिलबाग विर्क
***** 

गुरुवार, फ़रवरी 03, 2011

अग़ज़ल - 9

क्यों इतना बेचैन है , क्यों इतना बेकरार है 
जीत का पहला कदम मान इसे , ये जो हार है |
बेदाग होकर भी हम हुए किसी काम के नहीं 
रौशन  है  उससे  रात  , जो  चाँद  दागदार  है |  

वफा का इम्तिहान देने की मोहलत तो दे मुझे 
फिर  मुझको  बेवफा  कहने  का  तू  हकदार  है |

शोहरत  पाकर  लोग  अक्सर  बदल  जाते  हैं
पता नहीं इसमें शोहरत  का कितना खुमार है |

 कौन बा-वफा , कौन बेवफा , ये मसला छोटा नहीं 
अपनी  निगाहों   में  तो  हर  कोई  वफादार  है |

चाहत  को  अंजाम  देने  का  हुनर  नहीं  आता  
वरना ' विर्क ' हर शख्स ख़ुशी का तलबगार है |

दिलबाग विर्क 
* * * * *
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