बुधवार, अक्टूबर 17, 2018

शिकवा नहीं किया करते ज़माने से

ख़ुशी मिलेगी, ख़ुशियाँ फैलाने से 
नहीं मिलती ये किसी को रुलाने से।

जैसे हो, वैसा ही मिलेगा मुक़ाम 
शिकवा नहीं किया करते ज़माने से। 

औरों को समझा सकते हो मगर 
ख़ुद को समझाओगे किस बहाने से। 

ग़लतियाँ तो ग़लतियाँ ही होती हैं 
हो गई हों भले ही अनजाने से। 

क्या अच्छा नहीं आदतें सुधार लेना 
या कुछ मिलेगा बुरा कहलाने से। 

करने को थे ‘विर्क’ और भी काम बहुत 
तुझे फ़ुर्सत न मिली ख़ुद को बहलाने से। 

दिलबागसिंह विर्क 
*****

4 टिप्‍पणियां:

Abhilasha ने कहा…

बहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण रचना

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (19-10-2018) को "विजयादशमी विजय का, पावन है त्यौहार" (चर्चा अंक-3122) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
विजयादशमी और दशहरा की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Onkar ने कहा…

बहुत बढ़िया

कविता रावत ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति
आपको जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं!

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