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संजय राजा से कहे, अर्जुन हो लाचार।
बैठा करुणा से भरा, डाल चुका हथियार ।। 1 ।।
उपदेश दिया कृष्ण ने, मत डालो हथियार।
तुझको है यह क्या हुआ, कैसे धरे विचार ।। 2।।
कायरता को धारकर, खो देगा सम्मान।
पात्र बनेगा नर्क का, पाएगा अपमान ।। 3।।
केशव से अर्जुन कहे, निकले जाते प्राण।
गुरुवर मेरे सामने, कैसे छोड़ूँ बाण ।। 4।।
पितामह खड़े उस तरफ, उनसे बेहद प्यार।
गोदी में खेला किया, अब कैसे दूँ मार ।। 5।।
पुत्र तात के हैं सभी, दुश्मन राजकुमार।
फिर निश्चित यह भी नहीं, जीत मिले या हार ।। 6।।
जीता रण हमने अगर, तो भी होंगे क्लांत।
निष्कंटक होगी धरा, चित्त न होगा शांत ।। 7।।
रण में कैसे दूँ बहा, अपनों का ही रक्त।
यही सोचकर हे सखा!, मैं हो रहा विरक्त ।। 8 ।।
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पुस्तक - गीता दोहावली
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डॉ. दिलबागसिंह विर्क
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7 टिप्पणियां:
प्रेरक ,सरल सहज भाषा में आपका प्रयास सराहनीय है।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार २४ सितम्बर २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
हार्दिक आभार आदरणीय
सार्थक लेखन
आभार आदरणीय
वाह
आभार आदरणीय
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