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यश देगा कैसे हमें, इतना भारी पाप ।
समझ नहीं आता मुझे, समझाएँ अब आप ।। 9।।
शिष्य मानकर ज्ञान दें, शंका से हो त्राण।
शरणागत हूँ आपका, कर देना कल्याण ।।10 ।।
निद्रा जिसने जीत ली, उसने मानी हार।
संजय कहता हाल सब, दे पूरा विस्तार ।। 11 ।।
केशव अर्जुन को कहे, चिंता तेरी व्यर्थ ।
तू अधकचरे ज्ञान से, करने लगा अनर्थ ।।12 ।।
झलके तेरी बात में, बहुत बड़ा पांडित्य ।
पर मर्म समझता नहीं, है आत्मा तो नित्य ।। 13 ।।
इतना ज्यादा सोच मत, मन को थोड़ा रोक।
अर्जुन ! नश्वर देह का, ठीक नहीं है शोक ।। 14।।
आत्मा बदले देह को, एक जन्म को भोग।
रहते तीनों काल में, मैं, तुम, ये सब लोग ।। 15।।
खिले कमल-सा जो यहाँ, विषयों को ले जीत ।
मोक्ष मिले उसको सदा, यही चले है रीत ।।16।।
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पुस्तक - गीता दोहावली
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डॉ. दिलबागसिंह विर्क
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10 टिप्पणियां:
गूढ़ ज्ञान को सरल,सहज शब्दों में अभिव्यक्त करना आसान नहीं रहा होगा।
सराहनीय ।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार १ अक्टूबर २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
हार्दिक आभार आदरणीय
सुन्दर
अत्यंत रोचक प्रस्तुति। अभिनंदन।
हार्दिक आभार आदरणीय
हार्दिक आभार आदरणीय
वाह!!!
बहुत ही सार्थक एवं सारगर्भित ।
हार्दिक आभार आदरणीय
बहुत सुन्दर
हार्दिक आभार आदरणीय
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