ये दिल मचलकर बाहर आने को है
इसकी बेबसी मुझे रुलाने को है ।
ज़माने ने छीन ली है छत सिर से
और आसमां बिजली गिराने को है।
उलझ गया हूँ मैं, कोई बताए मुझे
क़सम खाने को है या निभाने को है।
लापरवाहियाँ मैंने छोड़ी ही नहीं
तमाशबीन फिर आग लगाने को है।
अमन, ख़ुशी, प्यार की उम्मीदों का महल
दहशत के इस दौर में चरमराने को है ।
किसी को भी अब परवाह नहीं इसकी
वफ़ा का फूल ‘विर्क’ मुरझाने को है।
दिलबागसिंह विर्क
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