मैं अदना-सा इंसां, सामने ताक़त ज़माने की
फिर भी ख़्वाहिश है, आसमां का चाँद पाने की।
कभी हमें भी नज़र उठाकर देखो तुम
बड़ी तमन्ना है आपसे नज़र मिलाने की ।
कहीं ऐसा न हो, दम तोड़ दे ये दिल मेरा
कब छूटेगी आदत तुम्हारी, मुझे सताने की।
मौसमे-तपिश में सर्द हवाएं नहीं चला करती
फिर भी ज़िंदा रखें हैं उम्मीद दिल बहलाने की।
ये न पूछ कब तक रहेगा आशियाना सलामत
हर तरफ़ हो रही कोशिशें, बिजलियाँ गिराने की।
इब्तिदा-ए-इश्क़ है ‘विर्क’ इसलिए बेचैन हूँ
धीरे-धीरे हो जाएगी आदत ज़ख़्म खाने की ।
दिलबागसिंह विर्क
******