बुधवार, अक्टूबर 31, 2018

दूर तक नज़र नहीं आता किनारा

कुछ इस क़द्र गर्दिश में है मेरा सितारा 
कहीं दूर तक नज़र नहीं आता किनारा। 

उन्हें गवारा नहीं मेरी हाज़िरजवाबी 
मुझे ख़ामोश रहना, नहीं है गवारा।

अपने हुनर की दाद पाना चाहता होगा 
तभी ख़ुदा ने चाँद को ज़मीं पर उतारा। 

बस अपनी मुलाक़ात हो नहीं पाती वरना 
गैरों से रोज़ पूछता हूँ, मैं हाल तुम्हारा। 

बीच रास्ते में कहीं साथ छोड़ देता है ये 
क़दमों के साथ घर न आए, दिल आवारा। 

फ़र्ज़ानों की नज़र में तो दीवाना ही हूँ मैं 
कौन पागल है ‘विर्क’, जिसने मुझे पुकारा।  

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, अक्टूबर 24, 2018

फीका-फीका लगे चाँद का शबाब

जब से देखी है तेरे चेहरे की तबो-ताब
फीका-फीका लगे तब से चाँद का शबाब। 

ये तन्हाइयाँ, ये दूरियाँ अब गवारा नहीं इसे 
क्या बताएँ तुम्हें, ये दिल है कितना बेताब।  

किताबे-इश्क़ पढ़ने का हुआ है ये असर 
आते हैं अब हमें तो बस तेरे ही ख़्वाब। 

कितना चाहते हैं तुम्हें, ये क्या पूछा तूने 
ऐ पागल, गर चाहत है तो होगी बेहिसाब। 

दिल में वफ़ा, आँखों में गै़रत होना ज़रूरी है 
कुछ भी अहमियत नहीं रखता कोई ख़िताब। 

हर सू फैला देना ‘विर्क’ मुहब्बत की ख़ुशबू 
देखना फिर आ जाएगा, ख़ुद-ब-ख़ुद इंकलाब।

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, अक्टूबर 17, 2018

शिकवा नहीं किया करते ज़माने से

ख़ुशी मिलेगी, ख़ुशियाँ फैलाने से 
नहीं मिलती ये किसी को रुलाने से।

जैसे हो, वैसा ही मिलेगा मुक़ाम 
शिकवा नहीं किया करते ज़माने से। 

औरों को समझा सकते हो मगर 
ख़ुद को समझाओगे किस बहाने से। 

ग़लतियाँ तो ग़लतियाँ ही होती हैं 
हो गई हों भले ही अनजाने से। 

क्या अच्छा नहीं आदतें सुधार लेना 
या कुछ मिलेगा बुरा कहलाने से। 

करने को थे ‘विर्क’ और भी काम बहुत 
तुझे फ़ुर्सत न मिली ख़ुद को बहलाने से। 

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, अक्टूबर 10, 2018

ऊँची इमारतों के बीच, मैं अपना घर ढूँढ़ता हूँ

जिसने चाहा था कभी मुझे, अब वो नज़र ढूँढ़ता हूँ
हर महफ़िल में अपना रूठा हुआ हमसफ़र ढूँढ़ता हूँ।  

यूँ तो हर मोड़ पर मिले हैं उससे भी हसीं लोग 
मगर उसके ही जैसा शख़्स मोतबर ढूँढ़ता हूँ। 

तमाज़ते-नफ़रत से झुलस रहे हैं मेरे दिलो-जां 
इससे बचने के लिए, चाहतों का शजर ढूँढ़ता हूँ। 

झूठे दिखावों के इस दौर में खो गया है कहीं 
ऊँची इमारतों के बीच, मैं अपना घर ढूँढ़ता हूँ। 

यहाँ तो लोग मुँह फेर लेते हैं हाल पूछने पर 
हँस-हँस कर गले मिलते थे जहाँ, वो शहर ढूँढ़ता हूँ। 

सुना है ‘विर्क’ अब इंसां, इंसां नहीं रहे, फिर भी 
ज़माने के सदफ़ में, इंसानीयत का गुहर ढूँढ़ता हूँ। 

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, अक्टूबर 03, 2018

आग की मानिंद फैलती है यहाँ ख़बर


नहीं आता है मुझको जीना, झुकाकर नज़र
गर ख़ताबार हूँ मैं, तो काट डालो मेरा सर।

मुझ पर भारी पड़ी हैं मेरी लापरवाहियाँ
तिनका-तिनका करके गया आशियाना बिखर।

अपनी रुसवाई के चर्चे तुम कैसे समेटोगे
आग की मानिंद फैलती है यहाँ ख़बर।

वक़्त को देता हूँ मौक़ा कि तोड़ डाले मुझे
सीखना चाहता हूँ, टूटकर जुड़ने का हुनर।

सीख लो अभी से चलना चिलचिलाती धूप में
ग़म की वीरान राहों पर, मिलते नहीं शजर।

बताओ विर्ककिस ढंग से जीएँ ज़िंदगी
कभी हौसला ले डूबे तो कभी ले डूबे डर।

दिलबागसिंह विर्क 
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