कुछ कोशिशें नाकाफ़ी
थी, कुछ लकीरों का असर
था
चलना, थकना, हारना, बस यही मेरा मुक़द्दर था।
न तो ख़ुशियाँ बटोर
सका, न ही ठुकरा पाया इसे
मेरा बसेरा कभी सराय,
कभी मकां, कभी घर था।
ग़ैर तो ग़ैर थे आख़िर
मौक़े मुताबिक़ बदल गए
वे अपने ही थे,
मारा जिन्होंने पहला पत्थर
था।
लोग तो दुश्मन
बनेंगे ही, झूठ को झूठ कहने पर
गिला क्यों करें,
जब ख़ुद चुना दुश्वार सफ़र था।
मुझे पागल साबित
करके वो बच गए इल्ज़ामों से
आख़िरकार ‘विर्क’ वही हुआ जिसका मुझे डर था।
दिलबागसिंह विर्क
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