ख़ुशियाँ उड़ें, जले यादों की आग में तन-मन
समझ न आए, ये इश्क़ भी है कैसी उलझन
न आने की बात वो ख़ुद कहकर गया है मुझसे
फिर भी छोड़े न दिल मेरा, उम्मीद का दामन
समझ न आए क्यों होता है बार-बार ऐसा
तेरा जिक्र होते ही बढ़ जाए दिल की धड़कन
गम की मेजबानी करते-करते थक गया हूँ
क्या करूँ, मेरा मुकद्दर ही है मेरा दुश्मन
सितमगर ने सितम करना छोड़ा ही नहीं
मैं खामोश रहा, कभी मजबूरन, कभी आदतन
जो रुसवा करे ‘विर्क’ उसी को चाहता है दिल
ये प्यार है, वफ़ा है, या है बस मेरा पागलपन
दिलबागसिंह विर्क
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