बुधवार, फ़रवरी 11, 2015

चले हम भले ही कदम डगमगाते रहे

मेरी हार की बात मुझे याद दिलाते रहे 
लोग आकर पास मेरे कहकहे लगाते रहे । 

सोचा था, छोड़ दूँ उसकी याद में पीना 
मगर यादों के साए मै-कदे तक लाते रहे । 

हमदर्दी जताने आए थे, उन्हें रोकता कैसे 
वो इसी बहाने मेरे जख्मों को सहलाते रहे । 
टूटे दिल ने कहा, क्या है जिंदगी के सफ़र में 
मगर चले हम भले ही कदम डगमगाते रहे । 

क्या करें, रूठना अब आदत हो गई है उनकी 
आदत से मजबूर होकर हम जिन्हें मनाते रहे । 

शायद वो देखना चाहते हैं हौंसला मेरा 
इसीलिए आशियाने पर बिजलियाँ गिराते रहे । 

जो थे ' विर्क ' कातिल मेरी खुशियों-अरमानों के 
बेबसी देखो, हम उन्हीं को अपना बुलाते रहे । 

दिलबाग विर्क 
*****
काव्य संकलन - साधना सार्थक रहेगी 
संपादक - जयसिंह अल्व्री 
प्रकाशक - राहुल प्रकाशन, सिरुगुप्पा ( कर्नाटक )
प्रकाशन वर्ष - 2008

2 टिप्‍पणियां:

Shanti Garg ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति.....

Ankur Jain ने कहा…

सुंदर रचना।

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