बुधवार, अगस्त 30, 2017

लावारिस देश

एक तरफ हैं 
वे लोग 
जो जला रहे हैं देश को 
जाति के नाम पर
धर्म के नाम पर 
भाषा के नाम पर 

दूसरी तरफ हैं वे लोग 
जो जला तो नहीं रहे देश को 
मगर वे देख रहे हैं तमाशा 
चुपचाप बैठकर 

तीसरी तरह के लोग भी हैं 
जो न जला रहे हैं देश को
न बचा रहे हैं 
वे बस बहस कर रहे हैं 
ऊंगली उठा रहे हैं 
इस्तीफा मांग रहे हैं 

इस देश पर अपना हक़ 
जताते हैं सब 
मगर दिखता नहीं कोई 
देश को बचाने वाला 
आखिर ये देश किसका है ? 

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, अगस्त 23, 2017

हाथों में जाम लेकर

जब भी बरसता है आँखों का सावन तेरा नाम लेकर 
मैं अपना ग़म भुलाता हूँ अक्सर, हाथों में जाम लेकर।

क्यों अब तक वापस नहीं आया वो, कोई बताए मुझे 
किस तरफ़ गया था क़ासिद, मुहब्बत का पैग़ाम लेकर।

तू तो सौदागर ठहरा, आ ये सौदा कर ले मुझसे 
वफ़ाएँ मेरे नाम कर दे, मेरी जान का इनाम लेकर।

न जाने क्यों तुझे गवारा न हुआ मेरे साथ चलना 
तुझे ख़ुशियों की सुबह दी थी, ग़म की शाम लेकर। 

ये दौलत, ये शौहरत के मुक़ाम मुबारक हों तुम्हें 
प्यार बिना क्या करूँगा, ऐसे बे’माने मुक़ाम लेकर।

इस बारे में कुछ न पूछो ‘विर्क’, बता न पाऊँगा 
जीना कैसा लगता है, अश्कों-आहों के इनाम लेकर।

दिलबागसिंह विर्क 

मंगलवार, अगस्त 15, 2017

अब मुहब्बत भी है बदनाम

न डरो, न घबराओ, बस करते रहो अपना काम 
फिर मिलने दो, जो मिले, इनाम हो या इल्ज़ाम।

बस्ती-ए-आदम में दम तोड़ रही है आदमीयत 
लगानी ही होगी हमें फ़िरक़ापरस्ती पर लगाम।

ख़ुदा तक पहुँच नहीं और आदमी से नफ़रत है 
बता ऐसे सरफिरों को मिलेगा कौन-सा मुक़ाम।

लुभाती तो हैं रंगीनियाँ मगर सकूं नहीं देती 
बसेरों को लौट आएँ परिंदे, जब ढले शाम।

आदमी की आदतों ने सबमें ज़हर घोला है 
सियासत ही नहीं, अब मुहब्बत भी है बदनाम।

शायद इसका नशा कुछ देर बाद रंग लाएगा 
बस पीते-पिलाते रहना ‘विर्क’ वफ़ा के जाम।

दिलबागसिंह विर्क 

मंगलवार, अगस्त 08, 2017

बातचीत बहाल कर

दिल में कोई ग़लतफ़हमी है तो सवाल कर
तेरी महफ़िल में आया हूँ, कुछ तो ख़्याल कर।

मिल बैठकर सुलझाएगा तो सुलझ जाएँगे मुद्दे
न लगा चुप का ताला, बातचीत बहाल कर।

सोच तो सही, तेरे दर के सिवा कहाँ जाऊँगा
तेरा दीवाना हूँ, न मुझे इस तरह बेहाल कर।

मैं पश्चाताप करूँगा बीते दिनों के लिए
अपनी ग़लतियों का तू भी मलाल कर।

मैं कोशिश करूँगा विर्कतेरा साथ देने की
तोड़ नफ़रत की दीवार, आ ये कमाल कर।

दिलबागसिंह विर्क 
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मंगलवार, अगस्त 01, 2017

लज़्ज़ते-इश्क़ का, कभी बयां नहीं होता

ज़मीं नहीं होती, उनका आसमां नहीं होता
सीने में जिनके छुपा कोई तूफ़ां नहीं होता।
क्यों खोखले शब्दों को सुनना चाहते हो 
लज़्ज़ते-इश्क़ का, कभी बयां नहीं होता। 

दर्द तो सताता ही है उम्र भर, भले ही 
मुहब्बत के ज़ख़्मों का निशां नहीं होता। 

पल-पल मिटाना होता है वुजूद अपना 
दौरे-ग़म को भुलाना आसां नहीं होता। 

अपने मसले अपने तरीक़े से सुलझाओ 
यहाँ सबका मुक़द्दर यकसां नहीं होता।

मंज़िलें उसकी उससे बहुत दूर रहती हैं 
जब तक आदमी मुकम्मल इंसां नहीं होता। 

तारीख़ी बातें किताबों में ही रह जाती हैं 
आम आदमी ‘विर्क’ तारीख़दां नहीं होता।

दिलबागसिंह विर्क 
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