अब ये आलम है मैकशी
का
भूल गया हूँ वुजूद
ख़ुदी का ।
छलावे पे अटका हूँ
इसलिए
दामन पकड़ न पाया
ख़ुशी का।
टुकड़े-टुकड़े हो गया
दिल मेरा
मुहब्बत खेल न था
हँसी का ।
सपाट रास्तों की
उम्मीद न कर
रुख बदलता रहे इस
ज़िंदगी का।
पूछो, दरख़्त भी लगाया है कभी
शौक है जिन्हें छाँव
घनी का ।
चलो ‘विर्क’ मैं तो नादां ठहरा
ग़म क्यों हमसाया है
सभी का ?
दिलबागसिंह विर्क
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4 टिप्पणियां:
नमस्ते,
आपकी यह प्रस्तुति BLOG "पाँच लिंकों का आनंद"
( http://halchalwith5links.blogspot.in ) में
शुक्रवार 27 अप्रैल 2018 को प्रकाशनार्थ 1015 वें अंक में सम्मिलित की गयी है।
प्रातः 4 बजे के उपरान्त प्रकाशित अंक अवलोकनार्थ उपलब्ध होगा।
चर्चा में शामिल होने के लिए आप सादर आमंत्रित हैं, आइयेगा ज़रूर।
सधन्यवाद।
वाह !
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (27-04-2017) को "ग़म क्यों हमसाया है" (चर्चा अंक-2953) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हर एक शेर पर सहसा ही वाह वाह निकल पड़ी.
लास्ट के दो शेर कसावट से भरे हैं
मजा आ गया वाह
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