मैं अदना-सा इंसां, सामने ताक़त ज़माने की
फिर भी ख़्वाहिश है, आसमां का चाँद पाने की।
कभी हमें भी नज़र उठाकर देखो तुम
बड़ी तमन्ना है आपसे नज़र मिलाने की ।
कहीं ऐसा न हो, दम तोड़ दे ये दिल मेरा
कब छूटेगी आदत तुम्हारी, मुझे सताने की।
मौसमे-तपिश में सर्द हवाएं नहीं चला करती
फिर भी ज़िंदा रखें हैं उम्मीद दिल बहलाने की।
ये न पूछ कब तक रहेगा आशियाना सलामत
हर तरफ़ हो रही कोशिशें, बिजलियाँ गिराने की।
इब्तिदा-ए-इश्क़ है ‘विर्क’ इसलिए बेचैन हूँ
धीरे-धीरे हो जाएगी आदत ज़ख़्म खाने की ।
दिलबागसिंह विर्क
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4 टिप्पणियां:
वाह जनाब विर्क साहब बहुत खूब पेशकश छह है आपकी । दिली दाद कबूल कीजियेगा ।
सादर
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (02-05-2018) को
"रूप पुराना लगता है" (चर्चा अंक-2958)) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
वाह !!!
बहुत सुन्दर रचना।.........
मेरे ब्लाॅग पर आपका स्वागत है ।
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