बुधवार, अगस्त 29, 2018

ये कैसा हादसा हो गया

पहले ही छोटा था मैं, और छोटा हो गया 
इसीलिए मेरा ग़म मुझसे बड़ा हो गया।

किसी को पूजने की ग़लती न करो लोगो 
जिसको भी पूजा गया, वही ख़ुदा हो गया। 

तमन्ना रखे है कि मिले इसे कुछ क़ीमत 
हैरां हूँ, मेरी वफ़ा को ये क्या हो गया। 

सबको हक़ नहीं मिलता दलील देने का 
उसने जो भी कहा, वही फ़ैसला हो गया। 

उल्फ़त को सलीब मिले, नफ़रत को ताज 
इस दौर में ये कैसा हादसा हो गया ?

ज़माने को सुकूं मिलता है तो ठीक है 
चलो मान लिया, ‘विर्क’ बेवफ़ा हो गया। 

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, अगस्त 22, 2018

शिकवों से भरा महबूब का ख़त है

न दुआ, न सलाम, ये कैसा वक़्त है  
शिकवों से भरा महबूब का ख़त है ।

यह ज़िन्दगी तो जीने लायक़ नहीं 
ज़िन्दा हैं लोग, ख़ुदा की रहमत है। 

गुनाहों की मुख़ालफ़त गुनाह नहीं 
क्यों मुख़ालफ़त के लिए मुख़ालफ़त है ?

चुप हैं खोखली तहज़ीब के कारण 
वरना कब कोई किसी से सहमत है। 

लफ़्ज़ बेमा’नी हो जाते हैं जहाँ
यह ग़मे-इश्क़ तो वो लज़्ज़त है। 

तुम्हें होंगे ज़माने भर के काम मगर 
यहाँ तो ‘विर्क’ फ़ुर्सत ही फ़ुर्सत है। 

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, अगस्त 15, 2018

दुआ करें या दवा करें

समझ नहीं आता यारो, इस मर्ज़ का क्या करें 
ज़ख़्मे-मुहब्बत के लिए दुआ करें या दवा करें। 

रौशनियाँ मंज़ूर भी हों इस ज़ालिम ज़माने को 
हम तो चाहते हैं, चिराग़ाँ की मानिंद जला करें। 

क़दमों को तो आवारा होने न देंगे हम मगर 
दिल पर कुछ ज़ोर नहीं, बताओ इसका क्या करें ? 

बैठा दोगे अगर हर मोड़ पर सैयाद तो, परिंदे
मुमकिन नहीं कि आसमां की बुलंदियाँ छुआ करें। 

माना सहनी ही होगी सज़ा अपनी ग़लतियों की 
बढ़ता ही जाए दर्द यह, अब कैसे हौसला करें। 

कोई उम्मीद तो हो ‘विर्क’ पत्थर पिघलने की 
वरना किसके भरोसे और कैसे हम वफ़ा करें। 

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, अगस्त 08, 2018

दिल में रहने वाले कब भुलाए जाते हैं

आँखें रोती हैं और ज़ख़्म मुसकराते हैं 
जाने वाले अक्सर बहुत याद आते हैं।

दिन में हमसफ़र बन जाती हैं तन्हाइयाँ 
और रातों को हमें उनके ख़्वाब सताते हैं।

ख़ुद की परछाई में दिखे सूरत उनकी 
दिल में रहने वाले कब भुलाए जाते हैं। 

जिन पर चले थे हम कभी मुसाफ़िर बनके 
यूँ लगे जैसे हमें वो रास्ते पास बुलाते हैं। 

शिकवा करने की हिम्मत भी नहीं होती 
कभी-कभी ख़ुद को इतना बेबस पाते हैं। 

कुछ ऐसी उलझी ज़िंदगी कि समझ न आए 
जीते हैं हम ‘विर्क’ या बस दिन बिताते हैं। 

दिलबागसिंह विर्क 
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