समझ नहीं आता यारो, इस मर्ज़ का क्या करें
ज़ख़्मे-मुहब्बत के लिए दुआ करें या दवा करें।
रौशनियाँ मंज़ूर भी हों इस ज़ालिम ज़माने को
हम तो चाहते हैं, चिराग़ाँ की मानिंद जला करें।
क़दमों को तो आवारा होने न देंगे हम मगर
दिल पर कुछ ज़ोर नहीं, बताओ इसका क्या करें ?
बैठा दोगे अगर हर मोड़ पर सैयाद तो, परिंदे
मुमकिन नहीं कि आसमां की बुलंदियाँ छुआ करें।
माना सहनी ही होगी सज़ा अपनी ग़लतियों की
बढ़ता ही जाए दर्द यह, अब कैसे हौसला करें।
कोई उम्मीद तो हो ‘विर्क’ पत्थर पिघलने की
वरना किसके भरोसे और कैसे हम वफ़ा करें।
दिलबागसिंह विर्क
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2 टिप्पणियां:
माना सहनी ही होगी सज़ा अपनी ग़लतियों की
बढ़ता ही जाए दर्द यह, अब कैसे हौसला करें।
बेहतरीन गजल
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (17-08-2018) को "दुआ करें या दवा करें" (चर्चा अंक-3066) (चर्चा अंक-3059) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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