नहीं आता है मुझको जीना, झुकाकर नज़र
गर ख़ताबार हूँ मैं, तो काट डालो मेरा सर।
मुझ पर भारी पड़ी हैं मेरी लापरवाहियाँ
तिनका-तिनका करके गया आशियाना बिखर।
अपनी रुसवाई के चर्चे तुम कैसे समेटोगे
आग की मानिंद फैलती है यहाँ ख़बर।
वक़्त को देता हूँ मौक़ा कि तोड़ डाले मुझे
सीखना चाहता हूँ, टूटकर जुड़ने का हुनर।
सीख लो अभी से चलना चिलचिलाती धूप में
ग़म की वीरान राहों पर, मिलते नहीं शजर।
बताओ ‘विर्क’ किस ढंग से जीएँ ज़िंदगी
कभी हौसला ले डूबे तो कभी ले डूबे डर।
दिलबागसिंह विर्क
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8 टिप्पणियां:
वक़्त को देता हूँ मौक़ा कि तोड़ डाले मुझे
सीखना चाहता हूँ, टूटकर जुड़ने का हुनर
बेहद खूबसूरत भावों को अभिव्यक्त करती है आपकी रचना 🙏
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (05-10-2018) को "छिन जाते हैं ताज" (चर्चा अंक-3115) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन देश की दूसरी महिला प्रशासनिक अधिकारी को नमन : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
बेहतरीन प्रस्तुति
कभी हौसला ले डूबे तो कभी ले डूबे डर।
वाह क्या बात हैं बहुत ही सुंदर
वाह उम्दा!!
बेहतरीन रचना।
वाह!!लाजवाब अभिव्यक्ति!
बहुत लाजवाब....
वाह!!!
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